Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ९-२, ८१.] चूलियाएं ढाणसमुक्तित्तणे णाम संघडणं वण्ण-गंध-रस- फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुअलहुअ-उवघाद-तस-बादर-अपज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुभ-दुहवअणादेज्ज अजसकित्ति-णिमिणं । एदासिं विदियपणुवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ८० ॥
परघादुस्सास-विहायगदि-सरणामाणमेत्थ बंधो पत्थि । कुदो ? अपजत्तबंधेण सह विरोहा, अपज्जत्तकाले एदेसिमुदयाभावादो च । जेसि जत्थ उदओ अस्थि तेसिं चेव तत्थ बंधो । ण थिर-सुहेहि अणेयंतो', सुहासुहपयडीणं अधुवबंधीणमक्कमेण बंधाभावा । सेसं सुगम । एत्थ भंगा चत्तारि (४)।
तिरिक्खगदिं तस-अपज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स ॥ ८१ ॥
सुगममेदं । वर्ण गन्ध, रस" स्पर्श", तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी अगुरुलघु", उपघात", त्रस" बादर", अपर्याप्त", प्रत्येकशरीर', अस्थिर", अशुभ", दुर्भग, अनादेय', अयश:कीर्ति और निर्माण नामकर्म । इन द्वितीय पच्चीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ८०॥
__परघात, उच्छास, विहायोगति और स्वर नामकर्म, इन प्रकृतियोंका इस बन्धस्थानमें बन्ध नहीं है, क्योंकि, इन प्रकृतियोंके बन्धका अपर्याप्तप्रकृतिके बन्धके साथ विरोध है, तथा अपर्याप्तकालमें इन परघात आदि प्रकृतियोंका उदय नहीं पाया जाता है। जिन प्रकृतियोंका जहांपर उदय होता है, उन प्रकृतियोंका ही वहांपर बन्ध होता है। उक्त कथनमें स्थिर और शुभ प्रकृतियोंके द्वारा अनेकान्त दोष नहीं आता है, क्योंकि, अध्रुवबंधी शुभ और अशुभ प्रकृतियोंका एक साथ बन्ध नहीं होता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । यहांपर द्वीन्द्रियादि चार जातियोंके विकल्पसे (४) चार भंग होते हैं ।
वह द्वितीय पच्चीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान त्रस और अपर्याप्त नामकर्मसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ॥ ८१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
२ प्रतिषु ' सरीर-' इति पाठः।
१ प्रतिषु · माव' इति पाठः। ३ प्रतिषु ' अणेयंता' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org