Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

View full book text
Previous | Next

Page 426
________________ ३६६ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ९-८, १६. वत्तइस्सामो । तं जहा - सव्वस्स अक्खवगस्स सव्वकम्माणं देसघादिफद्दयाणमादिवग्गणा तुला । सव्वधादीणं पि मिच्छत्तं मोत्तूण सेसाणं कम्माणं सव्त्रघादिआदिवग्गणा तुल्ला । एत्थ चदुण्हं संजलणाणं अपुव्वफद्दयाणि करेदि । ताणि कथं करेदि ? लोभस्स ताव, लोभसंजणस्स पुव्वफद एहिंतो पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागं घेत्तूण पढमस्स देसघादिफद्दयस्स हेट्ठा अनंतभागे अण्णाणि अपुव्यफदयाणि णिव्वत्तयदि' । ताणि पगणणादो अणताणि, पदेसमुणहाणिट्ठाणं तरफदयाणमसंखेज्जदिभागो । एत्तियाणि ताणि अपुत्रफद्दयाणि । तत्थ पढमस्स फद्दयस्त्र आदिवग्गणाए अविभागपलिच्छेदग्गं थोवं । विदियस्स फद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभाग पलिच्छेदग्गमणंतभागुत्तरं । विदियादो तदियं दुभागुत्तरं । तदियादो उत्थं तिभागुत्तरं । एवं कमेण संखेज्जदिभागुत्तरं गतूण पुणो असंखेज्जदि प्ररूपणाको कहते हैं । वह इस प्रकार है - सब अक्षपक जीवोंके समस्त कर्मोंके देशघाती स्पर्द्धकोंकी प्रथम वर्गणा समान है । सर्वघातियों में मिथ्यात्व को छोड़कर शेष सर्वघाती कमकी प्रथम वर्गणा समान है। यहां चार संज्वलनकपायोंके अपूर्वस्पर्द्धकों को करता है। शंका- उन अपूर्वस्पर्द्धकों को किस प्रकार करता है ? समाधान - प्रथमतः लोभके अपूर्व स्पर्द्धकोंके विधानको कहते हैं- संज्वलनलोभके पूर्वस्पर्द्धकों से प्रदेशात्र के असंख्यातवें भागको ग्रहण कर प्रथम देशघाती स्पर्द्धकके नीचे अनन्तगुणहानिरूपसे अपवर्तित कर उसके अनन्तवें भाग में अन्य अपूर्वस्पर्द्धकोंकी रचना करता है । वे अपूर्वस्पर्द्धक गणनासे अनन्त होते हुए भी प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के भीतर जितने स्पर्द्धक हैं उनके असंख्यातवें भागमात्र हैं । वे अपूर्वस्पर्द्धक इतने मात्र हैं । प्रथम समय में निर्वर्तित अपूर्वस्पर्द्धकों में से प्रथम स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा अविभागप्रतिच्छेद स्तोक हैं । द्वितीय स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा में अविभागप्रतिच्छेदों का समूह अनन्त वहुभागसे अधिक है। द्वितीय स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणासे तृतीय स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा में द्वितीय भाग अर्थात् आधेसे अधिक है। तृतीय स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा से चतुर्थ स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा में त्रिभागसे अधिक है । इस प्रकार क्रमसे संख्यातभागोत्तरवृद्धिसे जाकर पुनः असंख्यात भागसे अधिक होता है । पुनः असंख्यात भण्णंते । जयध. अ. प. ११०६. वर्धमानं मतं पूर्वं हीयमानमपूर्वकम् | स्पर्धकं द्विविधं ज्ञेयं स्पर्धकक्रमकोविदैः ॥ पंचसंग्रह-अमितगतिकृत, १, ४६. १ अमतौ ' व्वत्युदि ' आ-कमत्योः ' वचयुदि ' इति पाठः । २ गणनादेयपदेसगगुणहाणिट्टा फट्ट्याणं तु । होदि असंखे नदिमं अवराद् वरं अनंतगुणं ।। लब्धि. ४६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615