Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ९-६, ३६.] चूलियाए उक्कस्सहिदीए णग्गोधपरिमंडलसंठाणादीणि [१७७
एवं वक्खाणं पाहुडचुण्णिसुत्तेण अपुवकरणपढमसमयट्ठिदिबंधस्स सागरोवमकोडीलक्खपुधत्तपमाणं परूवयंतेण विरुज्झदे त्ति' णासंकणिज्जं, तस्स तंतंतरत्तादो । अधवा सग-सगजादिपडिबद्धट्ठिदिबंधेसु आबाधासु च एसो तेरासियणियमो, ण अण्णत्थ, खवगसेडीए अंतोमुहुत्तट्ठिदिबंधाणमावाधाभावप्पसंगादो। तम्हा सग-सगुक्कस्सद्विदिबंधेसु सग-सगुक्कस्साबाधाहि ओवट्टिदेसु आवाधाकंडयाणि आगच्छंति त्ति घेत्तव्वं । तदो एत्थ अंतोमुहुत्ताबाधाए वि संतीए अंतोकोडाकोडी ट्ठिदिबंधो होदि ति ।
अंतोमुहुत्तमाबाधा ॥ ३४ ॥ आबाधाकंडएण उक्कस्सविदिम्हि भागे हिदे आबाधा होदि । आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो ॥ ३५॥ सुगममेदं ।
णग्गोधपरिमंडलसंठाण-वज्जणारायणसंघडणणामाणं उक्कस्सगो द्विदिबंधो वारस सागरोवमकोडाकोडीओ ॥३६॥
यह व्याख्यान, अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम समयकी स्थितिबन्धका सागरोपमकोटिलक्षपृथक्त्व प्रमाणके प्ररूपण करनेवाले कसायपाहुडचूर्णिसूत्रसे विरोधको प्राप्त होता है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि, वह तंत्रान्तर अर्थात दस सिद्धान्तग्रन्थ या मत है । अथवा, अपनी अपनी जातिसे प्रतिबद्ध स्थितिबन्धोंमें और आबाधाओंमें यह त्रैराशिकका नियम लागू होता है, अन्यत्र नहीं, अन्यथा, क्षपकश्रेणीमें होनेवाले अन्तर्मुहूर्तप्रमित स्थितिबन्धोंकी आबाधाके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए अपने अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धोंको अपनी अपनी उत्कृष्ट आबाधाओंसे अपवर्तन करनेपर आवाधाकांडक आ जाते हैं, ऐसा नियम ग्रहण करना चाहिए । अतएव यह सिद्ध हुआ कि यहांपर, अर्थात् उक्त तीनों कर्मोकी स्थितिमें, अन्तर्मुहूर्तमात्र आबाधाके होनेपर भी स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण होता है। .
पूर्व सूत्रोक्त आहारकशरीरादि प्रकृतियोंका आवाधाकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र है ॥ ३४॥
आबाधाकांडकसे उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देनेपर आबाधा प्राप्त होती है।
उक्त तीनों कर्मोके आवाधाकालसे हीन कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ ३५॥
यह सूत्र सुगम है।
न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान और वज्रनाराचसंहनन, इन दोनों नामकर्मीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम है ॥ ३६॥
१ अप्रतौ विरुज्झदिति ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' उकस्सहिदित्ता' इति पाठः। ३ संठाणसंहदीणं चरिमस्सोघं दुहीणमादि ति । गो. क. १२९.
रा
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