Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
३५८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९-८, १६. जाओ बज्झति पयडीओ तासिमावाहमहिच्छिदूण जा जहण्णिया विसेयुडिदी तमार्दि काढूण बज्झमाणिया ट्ठिदीसु उक्कडिज्जदि । तदो अणुभागखंडय सहस्सेसु गदेसु अण्णो अणुभागखंडओ जो च अंतरे उक्कीरिज्जमाणे ट्ठिदिबंधो पबद्धो तत्थतट्ठिदिखंडगो अंतरकरणद्धा च एदाणि समगं णिट्टियमाणाणि णिट्टिदाणि ।
से काले अंतरकदपडमसमए णवुंसयवेदस्स आउत्तकरणसंकामगो जादो । लाभे चैव मोहारिणस्य संखेज्जन स्मिओ द्विदिबंधो, मोहणीयस्एगाणिया बंधोदया जाणि कम्माणि बज्झति तेसिं छसु आवलियासु गदासु उदीरणा, मोहणीयस्स आणुपुव्वीसंकमो, लोभसंजलणस्स असंक्रमो च जादों । तदो संखेज्जेसु विदिखंडय सहस्से सु
बंधती है उनकी आवाधाको लांघकर जो जघन्य निषेकस्थिति है उसे आदि करके ( द्वितीयस्थिति में समवस्थित) बध्यमान स्थितियों में उस अन्तरस्थितियों में उत्कीर्ण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको उत्कर्षण द्वारा देता है । पश्चात् अनुभाग कांडकसहस्रोंके वीत जानेपर अन्य अनुभाग कांडक, अन्तरकरणमें स्थितियोंके उत्कीर्ण करते समय जो स्थितिबन्ध बांधा था तत्सम्बंधी स्थितिकांडक और अन्तरकरणकाल, ये एक साथ समाप्त किये जानेवाले समाप्त हो जाते हैं ।
अन्तरकृत प्रथम समय में, अर्थात् अन्तरकी अन्तिम फालिके गिरनेपर, आवृत्तकरणसंक्रामक अर्थात् नपुंसकवदेकी क्षपणामें उद्यत होता है (१) । उसी समय ही मोहनीयका संख्यात वर्षवाला स्थितिबन्ध है ( २ ) । मोहनीयका एक स्थान (लता) वाला बन्ध और उदय ( ३-४ ), जो कर्म बंधते है उनकी छह आवलियों के वीतने पर उदीरणा ( ५ ), मोहनीयका आनुपूर्वी संक्रमण ( ६ ), और लोभके संक्रमणका अभाव (७) हो जाता है । अर्थात् उस समय जीव इन सात करणोंका प्रारम्भक होता है । पश्चात् संख्यात स्थितिकांडकसहस्रोंके वीत जानेपर संक्रमणको प्राप्त कराया जानेवाला
१ ण केवलं वेदिज्जमाणाणं पढमट्टिदीए चेत्र संछुहृदि किंतु बज्झमाणचदुसंजलणपुरिसवेदपयडीणं तक्कायिबंधस्स जा आवाहा अंतरायामादो संखेज्जगुणमद्वाणमुवरिं चडिदूण ट्टिदा तमइच्छेयूण बंधपदमणिसेयमादि काण बज्झमाणियासु द्विदीतु विदियट्टिदीए समवट्टिदासु तमंतरडिदीसु उक्कीरिज्जमानपदेसग्गमुक्कदुष्णावसेण संहृदित्ति भणिदं होदि । जयध. अ. प. १०८०. उक्कीरिदं तु दव्वं संते पटमट्ठिदिम्हि संहदि । बंधे आवाधमदित्थिय उक्कट्टदे णियमा । लब्धि. ४३५.
२ जम्हि समए अंतरच रिमफाली णिवदिदा तम्हि समए अंतरं पढमसमयकदं भण्णदे, तदणंतरसमए पुण अंतरं दुसमयकदं णाम भवदि । जयध. अ. प. १०८०.
३ तत्थ सयवेदस्स आउत करणसंकामगो त्ति भणिदे णवंसयवेदस्स खत्रणाए अम्मुट्ठिदो होतॄण पयट्टो त्ति भणिदं होदि । जयध. अ. प. १०८०.
४ सत्त करणाणि यंतरकदपढमे ताणि मोहणीयस्स । इंगिठाणियबंधुओ तस्सेव य संखवरस ठिदिबंधो ॥ तान्त्रिकम लोहस्स असंक्रमं च संदस्स । आत्रेच करणसंक्रम छावलितीदेसुदीरणदा ॥ लब्धि. ४३६-४३७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org