Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ९-८ ११.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए खझ्यसम्मत्तुप्पादणं
[२४५ हटुं पण्णारसकम्मभूमीसु त्ति भणिदे भोगभूमीओ पडिसिद्धाओ। कम्मभूमीसु द्विददेव-मणुस-तिरिक्खाणं सव्येसि पि गहणं किण्ण पावेदि त्ति भणिदे ण पावेदि, कम्मभूमीसुप्पण्णमणुस्साणमुवयारेण कम्मभूमिववदेसादो। तो वि तिरिक्खाणं गहणं पावेदि, तेसिं तत्थ वि उप्पत्तिसंभवादो ? ण, जेसिं तत्थेव उप्पत्ती, ण अण्णत्थ संभवो अत्थि, तेसिं चेव मणुस्साणं पण्णारसकम्मभूमिववएसो; ण तिरिक्खाणं सयंपहपव्वदपरभागे उप्पजणेण सव्वहिचाराणं । उत्तं च -
दंसणगोहक्खवणापट्ठवओ कम्मभूमिजादो दु।
णियमा मणुसगदीए णिवओ चावि' सव्वत्थ ॥ १७ ॥ मणुसेसुप्पण्णा कधं समुदेसु दंसणमोहक्खणं पट्टति ? ण, विज्जादिवसेण तत्था
प्राप्त होने पर उसका प्रतिषेध करने के लिए 'पन्द्रह कर्मभूमियोंमें' यह पद कहा है, जिससे उक्त अढ़ाई द्वीपोंमें स्थित भोगभूमियों का प्रतिषेध कर दिया गया।
शंका-'पन्द्रह कर्मभूमियोंमें' ऐसा सामान्य पद कहने पर कर्मभूमियोंमें स्थित देव, मनुष्य और तिर्यंच, इन सभीका ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान -- नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए मनुष्योंकी उपचारसे 'कर्मभूमि' यह संज्ञा की गई है।
शंका- यदि कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए जीवोंकी 'कर्मभूमि' यह संज्ञा है, तो भी तिर्यचौका ग्रहण प्राप्त होता है, क्योंकि, उनकी भी कर्मभूमियों में उत्पत्ति संभव है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, जिनकी वहांपर ही उत्पत्ति होती है, और अन्यत्र उत्पत्ति संभव नहीं है, उन ही मनुष्योंके पन्द्रह कर्मभूमियोंका व्यपदेश किया गया है, न कि स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें उत्पन्न होनेसे व्यभिचारको प्राप्त तिर्यंचोंके ।
कहा भी है
कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ और मनुष्यगतिमें वर्तमान जीव ही नियमसे दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक, अर्थात् प्रारम्भ करनेवाला होता है। किन्तु उसका निष्ठापक, अर्थात् पूर्ण करनेवाला सर्वत्र अर्थात् चारों गतियोंमें होता है ॥ १७ ॥
शंका - मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव समुद्रों में दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका कैसे प्रस्थापन करते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, विद्या आदिके वशसे समुद्रों में आये हुये जीवोंके
१ प्रतिषु 'मणिदं ' इति पाठः । ३ प्रतिपु ' चारि ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' हिदि- ' इति पाठः । ४ जयध. अ. प. ९६३,
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