Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ९-८ १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए चारित्तपडिवज्जणविहाणं [२७३ खंडओ, सो चेव द्विदिबंधो । गुणसेडी असंखेज्जगुणा । गुणसेडीणिक्खेवो तत्तिओ चेव, संजदासंजदम्मि अवविदगुणसेडीणिक्खेवं मुच्चा अण्णस्सासंभवादो। एवं जाव एगंताणुवड्डिकालचरिमसमओ त्ति अणंतगुणाए विसोहीए विसुझंतो समए समए असंखेज्जगुणमसंखेज्जगुणं दव्धमोकड्डिदूण अवविदगुणसेडिं करेदि । एवं द्विदिखंडएसु बहुएसु गदेसु तदो अधापवत्तसंजदासंजदो होदि । अधापवत्तसंजदासंजदस्स अणुभागघादो द्विदिघादो वा णत्थि । जदि संजमासंजमादो परिणामपच्चएण णिग्गदो संतो पुणरवि अंतोमुहुत्तेण परिणामपच्चएण आणीदो संजमासंजमं पडिवज्जदि, दोण्हं करणाणमभावादो तत्थ णत्थि द्विदिघादो अणुभागघादो वा । कुदो ? पुव्वं दोहि करणेहि घादिदद्विदि-अणुभागाणं वड्डीहि विणा संजमासंजमस्स पुणरागदत्तादो । जाव संजदासंजदो ताव समए समए गुणसेडिं करेदि । विसुझंतो असंखेज्जगुणं (संखेज्जगुणं वा) संखेज्जभागुत्तरं असंखेज्जभागुत्तरं वा दव्यमोकड्डिय अवट्ठिदगुणसेडिं करेदि । संकिलेसंतो एवं चेव गुणहीणं विसेसहीणं वा गुणसेडिं करेदि ।
कांङक होता है और वही स्थितिवन्ध होता है। केवल गुणश्रेणी असंख्यातगुणित होती है । गुणश्रेणीनिक्षेप भी उतना ही है, क्योंकि, संयतासंयतमें अवस्थित गुणश्रेणीनिक्षेपको छोडकर अन्यका होना असंभव है। इस प्रकार एकान्तानवद्धिकालके अन्तिम समय तक अनन्तगुणित विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होता हुआ समय समयमें असंख्यातगुणित असंख्यातगुणित द्रव्यका अपकर्षण करके अवस्थित गुणश्रेणीको करता है।
विशेषार्थ-संयतासंयत होनेके प्रथम समयसे लेकर जो प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होती है उसे एकान्तवृद्धि कहते हैं। इस एकान्तवृद्धिका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है।
इस प्रकार वहुतसे स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर तब यह जीव अधःप्रवृत्तसंयतासंयत होता है। अधःप्रवृत्तसंयतासंयतके अनुभागघात अथवा स्थितिघात नहीं होता है। यदि परिणामोंके योगसे संयमासंयमसे निकला हुआ, अर्थात् गिरा हुआ, फिर भी अन्तर्मुहूर्त के द्वारा परिणामोंके योगसे लाया हुआ संयमासंयमको प्राप्त होता है, तो अधःकरण और अपूर्वकरण, इन दोनों करणोंका अभाव होनेसे वहां पर न स्थितिघात होता हैं और न अनुभागघात होता है, क्योंकि, पहले उक्त दोनों करणों के द्वारा घात किये गये स्थिति और अनुभागोंकी वृद्धिके विना वह संयमासंयमको पुनः प्राप्त हुआ है। जब तक वह संयतासंयत है, तब तक समय समयमें गुणश्रेणीको करता है। विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ वह असंख्यातगुणित, (संख्यातगुणित), संख्यात भाग अथवा असंख्यात भाग अधिक द्रव्यको अपकर्षित कर अवस्थित गुणश्रेणीको करता है । संक्लेशको प्राप्त होता हुआ वह इस ही प्रकार असंख्यातगुण हीन, संख्यातगुण हीन अथवा विशेष हीन गुणश्रेणीको करता है।
१ दव्वं असंखगुणियकमेण एयतवद्धिकालो त्ति । बहुठिदिखंडे तीदे अधापवत्तो हवे देसो॥ लब्धि. १७२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org