Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ९-८, ३.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए लद्धीओ
[२०५ कुदो ? एदेसु संतेसु करणजोग्गभाउवलंभादो। सुत्ते काललद्धी चेव परूविदा, तम्हि एदासिं लद्धीणं कधं संभवो ? ण, पडिसमयमणंतगुणहीणअणुभागुदीरणाए अणंतगुणकमेण वड्डमाणविसोहीए आइरियोवदेसोवलंभस्स य तत्थेव संभवादो। एदाओ चत्तारि वि लद्धीओ भवियाभवियमिच्छाइट्ठीणं साहारणाओ, दोसु वि एदाणं संभवादो । उत्तं च
खयउवसमिय-विसोही देसण-पाओग्ग-करणलद्धी य । - चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते' ॥ १॥
क्योंकि, इन अवस्थाओंके होनेपर करण, अर्थात् पांचवीं करणलब्धिके योग्य भाव पाये जाते हैं।
विशेषार्थ-यहांपर अनुभागको घात करके द्विस्थानीय अनुभागमें अवस्थान कहा है उसका अभिप्राय यह है कि घातिया कर्मोकी अनुभागशक्ति लता, दारु, अस्थि और शैलके समान चार प्रकारकी होती है । अघातिया कर्मोंमें दो विभाग हैं, पुण्यप्रकृतिरूप और पापप्रकृतिरूप । पुण्यरूप अघातिया कर्मोकी अनुभागशक्ति गुड़, खांड, शक्कर और अमृतके समान होती है, और पापरूप अघातिया कर्मोकी अनुभागशक्ति नीम, कांजीर, विष और हालाहलके समान हीनाधिकता लिए होती है । (देखो गो. क. गाथा १८०-१८४ ) प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीव प्रायोग्यलब्धिके द्वारा घातिया कौके अनुभागको घटाकर लता और दारु, इन दो स्थानोंमें, तथा अघातिया कर्मोंकी पापरूप प्रकृतियोंके अनुभागको नीम और कांजीर, इन दो स्थानों में अवस्थित करता है । इसीको द्विस्थानीय अनुभागमें अवस्थान कहते हैं।
शंका-सूत्रमें केवल एक काललब्धि ही प्ररूपण की गई है, उसमें इन शेष लब्धियोंका होना कैसे संभव है ? .
समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रतिसमय अनन्तगुणहीन अनुभागकी उदीरणाका, अनन्तगुणितक्रम द्वारा वर्धमान विशुद्धिका और आचार्यके उपदेशकी प्राप्तिका उसी एक काललब्धिमें होना संभव है । अर्थात् उक्त चारों लब्धियोंकी प्राप्ति काललब्धिके ही आधीन है, अतः वे चारों लब्धियां काललब्धिमें अन्तर्निहित हो जाती हैं।
ये प्रारंभकी चारों ही लब्धियां भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि जीवोंके साधारण हैं, क्योंकि, दोनों ही प्रकारके जीवोंमें इन चारों लब्धियोंका होना संभव है। कहा भी है
क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि, ये पांच लब्धियां होती है। इनमेंसे पहली चार तो सामान्य हैं, अर्थात् भव्य और अभव्य, दोनों प्रकारके जीवोंके होती हैं। किन्तु करणलब्धि सम्यक्त्व होनेके समय होती है ॥१॥
१लब्धि. ३. परं तत्र चतुर्थचरणे करणं सम्मत्तचारिते ' इति पाठः।
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