Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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[ ८९
१, ९-२, २१.] चूलियाए ढाणसमुक्त्तिणे मोहणीयं
एदं दबट्ठियणयसुत्तं । कुदो ? बीजीभूदत्तादो ।
तत्थ इमं वावीसाए ढाणं, मिच्छत्तं सोलस कसाया इत्थिवेदपुरिसवेद-णउसयवेद तिण्हं वेदाणमेकदरं हस्सरदि-अरदिसोग दोण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय-दुगुंछा। एदासिं वावीसाए पयडीणं एक्कम्हि चेव टाणं बंधमाणस्स ॥ २१ ॥
मिच्छत्त-सोलसकसाया धुवबंधिणो, उदएणेव बंधेण परोप्परेण विरोहाभावा । तेण तत्थ एगदरसद्दो ण पउत्तो । इत्थि-पुरिस-णqसयवेदाणं हस्सरदि-अरदिसोगजुगलाणं च उदएणेव बंधेण वि विरोहो अत्थि त्ति जाणावणट्ठमेक्कदरसद्दपओओ कओ। भयदुगुंछासु पुण ण कओ, बंधं पडि विरोहाभावा । एदासिमेक्कम्हि चेव अवट्ठाणं होदि । कत्थ ? वावीसाए । कधमेक्कम्हि आहाराहेयभावो ? ण, संखाणादो संखेज्जस्स कथंचि
यह द्रव्यार्थिकनयाश्रित सूत्र है, क्योंकि, वह अपने अन्तर्निहित समस्त अर्थोके बीजपदस्वरूप है।
मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश बन्धस्थानोंमें मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद इन तीनों वेदोंमेंसे कोई एक वेद, हास्य और रति, तथा अरति और शोक इन दोनों युगलोंमेंसे कोई एक युगल, भय
और जुगुप्सा, इन बाईस प्रकृतियोंका एक बन्धस्थान होता है। इन बाईस प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ २१ ॥
मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी आदि सोलस कषाय, ये सत्तरह ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं, क्योंकि, उदयके समान बन्धकी अपेक्षा परस्परमें उनका कोई विरोध नहीं है । इसलिए इनके साथमें 'एकतर' इस शब्दका प्रयोग नहीं किया गया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद इन तीनों वेदोंका, तथा हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलोंका उदयके समान बन्धके साथ भी विरोध है, यह बात बतलानेके लिए इनके साथमें 'एकतर' शब्दका प्रयोग किया गया है। किन्तु भय और जुगुप्सा, इन दोनों प्रकतियोंके साथमें 'एकतर' शब्दका प्रयोग नहीं किया गया है, क्योंकि, बन्धके प्रति उनका परस्परमें कोई विरोध नहीं है। इन बाईस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान होता है।
शंका-उक्त प्रकृतियोंका किस एक भावमें अवस्थान है ? समाधान-- बाईस प्रकृतियोंके समुदायात्मक एक भावमें अवस्थान है। शंका-एक ही वस्तुमें आधार और आधेय भाव कैसे बन सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, संख्यानसे संख्येय कथंचित् पृथग्भूत होता है,
१ प्रतिषु ' एक्कं हि ' इति पाठः।
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