Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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९६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,९-२, ३६. णवसु एदासु चत्तारि पयडीओ अवणिदे अवसेसाओ पंच होति । अत्थावत्तीदो पेक्खापुव्ययारिसिस्सेहि जदिवि अवगदाओ सेसपंचपयडीओ, तो वि सद्दाणुसारिसिरसाणुग्गहमुत्तरसुत्तं भणदि
चदुसंजलणं पुरिसवेदो । एदासिं पंचण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ ३६॥
तत्थ पंचसंखाए, पंचपयडिबंधजोग्गपरिणामे वा। सेसं सुगम । तं संजदस्स ॥ ३७॥ कुदो ? अण्णत्थ पंचपयडिबंधाभावा । तत्थ इमं चदुण्हं हाणं पुरिसवेदं वज्ज ॥ ३८ ॥ पंचसु पयडीसु पुरिसवेदे अवणिदे अवसेसाओ चत्तारि हवंति।
इन उपर्युक्त नौ प्रकृतियोंमेंसे हास्यादि चार प्रकृतियोंको कम कर देनेपर अवशेष पांच प्रकृतियां रह जाती हैं।
यद्यपि प्रेक्षापूर्वकारी अर्थात् बुद्धि-प्रधान शिष्योंके द्वारा अर्थापत्तिसे शेष पांच प्रकृतियां जान ली गई हैं, तो भी शब्दनयानुसारी शिप्योंके अनुग्रह के लिए आचार्य उत्तर सूत्र कहते हैं
क्रोध आदि चारों संज्वलन कपाय और पुरुषवेद, इन पांचों प्रकृतियोंके बंध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ३६ ॥
उस 'एक ही भावमें' इस पदका अर्थ 'पांच प्रकृतिरूप संख्यामें, अथवा पांच प्रकृतियोंके बन्धयोग्य परिणाममें' ऐसा लेना चाहिए । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
वह पांच प्रकृतिरूप छठा बन्धस्थान संयतके होता है ॥ ३७॥ क्योंकि, संयतके सिवाय अन्यत्र इस पांच प्रकृतिरूप वन्धस्थानका अभाव है।
विशेषार्थ- यहांपर यद्यपि संयत-सामान्यको ही इस बन्धस्थानका स्वामी बतलाया गया है, तथापि उसका अभिप्राय अनिवृत्तिकरण संयतसे ही है । तथा यही बात आगे कहे जानेवाले चार, तीन और दो प्रकृतिरूप बन्धस्थानोंके स्वामित्वमें भी जानना चाहिए । एक प्रकृतिरूप बन्धस्थानका स्वामी सूक्ष्मसाम्परायसंयत है। इससे आगे न किसी मोहप्रकृतिका बन्ध ही होता है और न उदय या सत्त्व ही रहता है।
मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश वन्धस्थानोंमें छठे बन्धस्थानकी पांच प्रकृतियोंमेंसे पुरुषवेदको छोड़नेपर यह चार प्रकृतिरूप सातवां बन्धस्थान होता है ।। ३८॥
पूर्व सूत्रोक्त पांच प्रकृतियोंमेंसे पुरुषवेदके घटा देनेपर अवशेष चार प्रकृतियां रहती हैं।
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