Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-२, ३०. अट्ठ कसाया पुरिसवेदो हस्सरदि-अरदिसोग दोण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय-दुगुंछा। एदासिं तेरसण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥३०॥
___ एक्कम्हि कधं ? तेरससंखाए । कधं तेरसण्हमेयत्तं ? संखासामण्णावेक्खाए, तेरसण्हं पयडीणं बंधपाओग्गपरिणामे वा । सेसं सुगमं । एत्थ भंगा दोण्णि (२)।
तं संजदासंजदस्स ॥ ३१ ॥
कुदो ? उवरि पच्चक्खाणचदुक्कस बंधाभावा । तं पि कुदो ? तत्थ तस्सुदयाभावा । तेण संजदासंजदो चेव सामी होदि ।
तत्थ इमं णवण्हं ठाणं पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-मायालोहं वज्ज ॥ ३२ ॥
प्रत्याख्यानावरणीय आदि आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलोंमेंसे कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा, इन तेरह प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ३० ॥
शंका-एकमें ही अवस्थान कैसे होता है ?
समाधान-एक अर्थात् तेरह संख्या समुदायकी अपेक्षा तेरह प्रकृतियोंका अवस्थान होता है।
शंका-तेरह प्रकृतियोंके एकत्व कैसे संभव है ? .
समाधान-'तेरह' इस संख्या-सामान्यकी अपेक्षासे तेरह प्रकृतियोंके एकत्व संभव है । अथवा तेरह प्रकृतियोंके बन्ध-योग्य परिणाममें उक्त तेरह प्रकृतियोंका अवस्थान होता है, इस अपेक्षासे उनके एकत्व बन जाता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। यहांपर हास्यादि दोनों युगलोंके विकल्पसे (२) दो भंग होते हैं।
उक्त तेरह प्रकृतिरूप चतुर्थ बन्धस्थान संयतासंयतके होता है ॥ ३१ ॥
क्योंकि, पंचम गुणस्थानसे ऊपर प्रत्याख्यानावरणीय कपाय-चतुष्कका बन्ध नहीं होता है । और इसका भी कारण यह है कि ऊपरके गुणस्थानोंमें प्रत्याख्यानावरणीय कषायके उदयका अभाव है। इसलिए तेरह प्रकृतिरूप बन्धस्थानका स्वामी संयतासंयत ही होता है।
मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश बन्धस्थानोंमें चतुर्थ बन्धस्थानकी तेरह प्रकृतियोंमेंसे प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभकपायको छोड़नेपर यह नौ प्रकृतिरूप पंचम बन्धस्थान होता है ॥ ३२ ॥
१ दो दो हवंति छटो ति । गो. क. ४६७.
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