Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ९-१, ४५.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे णाम-उत्तरपयडीओ [७७
___ जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं सीह-कुंजर-वसहाणं व पसत्था गई होज्ज, तं पसत्थविहायगदी णाम । जस्स कम्मस्स उदएण खरोट्ट-सियालाणं व अप्पसत्था गई होज्ज, सा अप्पसत्थविहायोगदी णाम ।।
तसणामं थावरणामं बादरणामं सुहुमणामं पज्जत्तणाम, एवं जाव णिमिण-तित्थयरणामं चेदि ॥ ४४ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो पुव्वं परूविदो। ण पुणरुत्तदोसो वि, एदाओ पिंडपगडीओ ण होति त्ति जाणावणटुं पुणो परूवणादो।
गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ, उच्चागोदं चेव णिच्चागोदं चेव ॥४५॥
जस्स कम्मस्स उदएण उच्चागोदं होदि तमुच्चागोदं । गोत्रं कुलं वंशः संतान
जिस कर्मके उदयसे जीवोंके सिंह, कुंजर, और वृषभ (बैल) के समान प्रशस्त गति होवे, वह प्रशस्तविहायोगति नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे गर्दभ, ऊंट और सियालोंके समान अप्रशस्तगति होवे, वह अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म है ।
त्रस नामकर्म, स्थावर नामकर्म, बादर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, पर्याप्त नामकर्म, इनको आदि लेकर निर्माण और तीर्थकर नामकर्म तक । अर्थात् अपर्याप्त नामकर्म, प्रत्येकशरीर नामकर्म, साधारणशरीर नामकर्म, स्थिर नामकर्म, अस्थिर नामकर्म, शुभ नामकर्म, अशुभ नामकर्म, सुभग नामकर्म, दुर्भग नामकर्म, सुस्वर नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, आदेय नामकर्म, अनादेय नामकर्म, यशःकीर्ति नामकर्म, अयश कीर्ति नामकर्म, निर्माण नामकर्म और तीर्थकर नामकर्म ॥ ४४ ॥
इस सूत्रका अर्थ पहले अर्थात् २८ वे सूत्रकी व्याख्यामें निरूपण किया जा चुका है । तथापि दुवारा यहां उक्त प्रकृतियोंके कहनेपर पुनरुक्तदोष नहीं आता है, क्योंकि, ये सूत्र पठित प्रकृतियां पिंडप्रकृतियां नहीं हैं, इस बातके बतलानेके लिए उनका पुनः प्ररूपण किया
गोत्रकर्मकी दो प्रकृतियां हैं- उच्चगोत्र और नीचगोत्र ॥४५॥ जिस कर्मके उदयसे जीवोंके उच्चगोत्र होता है, वह उच्चगोत्रकर्म है । गोत्र, कुल,
१ वरवृषभद्विरदादिप्रशस्तगतिकारणं प्रशस्तविहायोगतिनाम । त. रा. वा. ८, ११. २ उष्ट्रखराद्यप्रशस्तगतिनिमित्तमप्रशस्तविहायोगतिनाम । त. रा. वा. ८, ११. ३ उच्चैनर्चिश्चै । त. सू. ८, १२. ४ यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् । स. सि.; त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, १२.
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