Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-१, २८ जस्स कम्मस्स उदएण जीवो सुहुमत्तं पडिवज्जदि तस्स कम्मस्स सुहुममिदि सण्णा । जदि सुहुमणामकम्मं ण होज्ज, तो सुहुमजीवाणमभावो होज्ज ण च एवं, सप्पडिवक्खाभावे बादराणं पि अभावप्पसंगादो । जस्स कम्मस्स उदएण जीवो पज्जत्तो होदि तस्स कम्मस्स पज्जत्तेत्ति सण्णा । जदि पज्जत्तणामकम्मं ण होज्ज, तो सब्वे जीवा अपज्जत्ता चेव होज्ज । ण च एवं, पज्जत्ताणं पि उवलंभा । जस्स कम्मस्स उदएण जीवो पज्जत्तीओ समाणे, ण सक्कदि तस्स कम्मस्स अपज्जत्तणाम सण्णा । जदि अपज्जत्तणामकम्मं ण होज्ज, तो सव्वे जीवा पज्जत्ता चेव होज्ज । ण च एवं, पडिवक्खाभावे अप्पिदस्स वि अभावप्पसंगा। जस्स कम्मस्स उदएण जीवो पत्तेयसरीरो होदि, तस्स कम्मस्स पत्तेयसरीरमिदि सण्णा । जदि पत्तेयसरीरणामकम्म ण होज्ज, तो एक्कम्हि सरीरे एगजीवस्सेव उवलंभो ण होज्ज । ण च एवं, णिव्याहमुलभा ।
जिस कर्मके उदयसे जीव सूक्ष्मताको प्राप्त होता है, उस कर्मकी 'सूक्ष्म ' यह संज्ञा है । यदि सूक्ष्मनामकर्म न हो, तो सूक्ष्म जीवोंका अभाव हो जाय । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, अपने प्रतिपक्षीके अभावमें बादरकायिक जीवोंके भी अभावका प्रसंग आता है। जिस कर्मके उदयसे जीव पर्याप्त होता है, उस कर्मकी ‘पर्याप्त' यह संक्षा है। यदि पर्याप्तनामकर्म न हो, तो सभी जीव अपर्याप्त ही हो जावेंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, पर्याप्तक जीवोंका भी सद्भाव पाया जाता है। जिस कर्मके उदयसे जीव पर्याप्तियोंको समाप्त करनेके लिए समर्थ नहीं होता है, उस कर्मकी 'अपर्याप्तनाम' यह संज्ञा है । यदि अपर्याप्तनामकर्म न हो, तो सभी पर्याप्तक ही होवेंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, प्रतिपक्षीके अभावमें विवक्षितके भी अभावका प्रसंग आता है । जिस कर्मके उदयसे जीव प्रत्येकशरीरी होता है, उस कर्मकी 'प्रत्येकशरीर' यह संशा है । यदि प्रत्येकशरीरनामकर्म न हो, तो एक शरीरमें एक जीवका ही उपलम्भ न होगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, प्रत्येकशरीरी जीवोंका सद्भाव बाधा-रहित पाया जाता है।
१ सूक्ष्मशरीरनिवर्तकं सूक्ष्मनाम । स. सि.; त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, ११. २ यदुदयादाहारादिपर्याप्तिनिवृत्तिः तत्पर्याप्तिनाम | स. सि. त.; रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, ११. ३ षड्डिधपर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्तिनाम । स. सि.; त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, ११.
४ शरीरनामकर्मोदयान्निर्वामानं शरीरमेकात्मोपभोगकारणं यतो भवति तत्प्रत्येकशरीरनाम | स. सि.; त. रा. वा. त- श्लो. वा. ८, ११.
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