Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
५४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-१, २८. णियमो असिद्धो, हय-हत्थि-हरिणेसु संठाणणियमुवलंभा । तदो सिद्ध जीवसरीरसंठाणं सहेउअमिदि। जस्स कम्मक्खंधस्सुदएण सरीरस्संगोवंगणिप्फत्ती होज्ज तस्स कम्मक्खंधस्स सरीरंगोवंग णाम । एदस्स कम्मस्साभावे अटुंगाणमुवंगाणं च अभावो होज्ज । ण चैवं, तहाणुवलंभा । एत्थुवउज्जती गाहा
णलया बाहूँ अ तहा णियंत्र पुट्ठी उरो य सीसं च ।
अट्टेव दु अंगाई देहण्णाई उवंगाई॥ १० ॥ शिरसि तावदुपांगानि मूर्द्ध-करोटि-मस्तक-ललाट-शंख-भ्रू-कर्ण-नासिका-नयनाक्षिकूट-हनु-कपोल उत्तराधरोष्ठ-सृक्वणी-तालु-जिहादीनि । जस्स कम्मस्स उदएण सरीरे हड्ड-संधीणं णिप्फत्ती होज्ज, तस्स कम्मस्स संघडणमिदि सण्णा । एदस्स कम्मस्स अभावे सरीरमसंघडणं होज्ज देवसरीरं वा । होदु चे ण, तिरिक्ख-मणुससरीरेसु हड्डकलाउवलंभा। असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, घोड़ा, हाथी और हरिणों में संस्थानका नियम पाया जाता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जीवके शरीरका संस्थान सहेतुक है।
जिस कर्म-स्कंधके उदयसे शरीरके अंग और उपांगोंकी, निष्पत्ति होती है उस कर्म-स्कन्धका शरीरांगोपांग' यह नाम है। इस नामकर्मके नहीं माननेपर आठों अंगोंका और उपांगोंका अभाव हो जायगा । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, अंग और उपांगोंका अभाव पाया नहीं जाता है । इस विषयमें यह उपयोगी गाथा है
शरीरमें दो पैर, दो हाथ, नितम्ब (कमरके पीछेका भाग), पीठ, हृदय और मस्तक, ये आठ अंग होते हैं । इनके सिवाय अन्य (नाक, कान, आंख इत्यादि) उपांग होते हैं ॥ १० ॥
शिरमें मूर्धा, कपाल, मस्तक, ललाट, शंख, भोह, कान, नाक, आंख, अक्षिकूट, हनु, (उड़ी) कपोल, ऊपर और नीचेके ओष्ठ, सृक्वणी (चाप), तालु और जीभ आदि उपांग होते हैं। जिस कर्मके उदयसे शरीर में हड्डी और उसकी संधियों अर्थात् संयोग स्थानोंकी निष्पत्ति होती है, उस कर्मकी 'संहनन' यह संज्ञा है। इस कर्मके अभावमें शरीर देवोंके शरीरके समान संहनन-रहित हो जायगा।
शंका-यदि संहननकर्मके अभावमें शरीर देव-शरीरके समान संहनन रहित होता है, तो होने दो, क्या हानि है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्यके शरीरोंमें हाड़ोंका समूह पाया जाता है।
१ यदुदयादंगोपांगविवेकस्तदंगोपांगनाम । स. सि.; ते. रा.वा. त. श्लो. वा. ८,११. २ गो. क. २८. परंतु तत्र चतुर्थचरणे 'देहे सेसा उबंगाई' इति पाठः। ३ यस्योदयादस्थिबन्धनविशेषो भवति तत्संहनननाम | स. सि.; त. रा. वा. त. श्लो. वा. ८, ११.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org