Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ९-१, १४.] चूलियाए पगडिसमुक्कित्तणे णाणावरणीय-उत्तरपयडीओ [१५
आभिणिबोहियणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि ॥ १४ ॥
णाणावरणीयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ त्ति एदं ण वत्तव्यं, पंचण्हं पयडीणं पुध णामणिद्देसेणेव णाणावरणीयस्स पयडिपंचयत्तब्भुवगमादो ? ण एस दोसो, दवट्ठियसिस्साणुग्गहढे णाणावरणीयस्स कम्मरस पंच पयडीओ ति पदुप्पायणादो । एवं दोसो होज्ज, जदि दोण्णि वि सुत्ताणि' एयणयणिबंधणाणि । किंतु पुबिल्लं दबट्ठियसिस्साणुग्गहकारि, पच्छिल्लं पि पज्जवट्ठियणयसिस्साणुग्गहकारि । तदो दो वि सुत्ताणि सहलाणि त्ति ।
अहिमुह-णियमियअत्थावबोहो आभिणिबोहो । थूल-वट्टमाण-अणंतरिदअत्था अहिमुहा । चक्खिदिए रूवं णियमिद, सोदिदिए सद्दो, घाणिदिए गंधो, जिभिदिए रसो, फासिदिए फासो, णोइंदिए दिट्ठ-सुदाणुभूदत्था णियमिदा । अहिमुह णियमिदद्वेसु
वे पांच प्रकृतियां इस प्रकार हैं-आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय ॥ १४ ॥
शंका-'ज्ञानावरणीय कर्मकी पांच प्रकृतियां होती हैं। इस प्रकारका सूत्र नहीं कहना चाहिए, क्योंकि, पांचों प्रकृतियोंके पृथक् नाम-निर्देशके द्वारा ही इस बातका ज्ञान हो जाता है कि ज्ञानावरणीयकर्मकी प्रकृतियां पांच ही हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयावलम्बी शिष्योंके अनुग्रहके लिए ‘ज्ञानावरणीयकर्मकी पांच प्रकृतियां होती हैं। इस प्रकारका सूत्र निर्माण किया गया है। यदि ये दोनों ही सूत्र एक नयके आश्रित होते, तो उक्त प्रकारका यह दोष होता। किन्तु, पहला सूत्र द्रव्यार्थिकनयी शिष्योंका अनुग्रह करनेवाला है, और पिछला सूत्र पर्यायार्थिकनयी शिष्योंका अनुग्रह करनेवाला है। इसलिए ये दोनों ही सूत्र सफल अर्थात् सार्थक हैं।
अभिमुख और नियमित अर्थके अवबोधको अभिनिबोध कहते हैं। स्थूल, वर्तमान और अनन्तरित अर्थात् व्यवधान-रहित अर्थोंको अभिमुख कहते हैं। चक्षुरिन्द्रियमें रूप नियमित है, श्रोत्रेन्द्रियमें शब्द, घ्राणेन्द्रियमें गन्ध, जिह्वेन्द्रियमें रस, स्पर्शनेन्द्रियमें स्पर्श और नोइन्द्रिय अर्थात् मनमें दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थ नियमित हैं। इस
१ प्रतिषु ' सुद्धताणि' इति पाठः
२ अहिमुहणियमियबोहणमाभिणिबोहियमाणिदिइंदियजं । अवगहईहावाया धारणगा होति पत्तेगं ॥ गो. जी. ३.५.
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