Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 15
________________ 8 षट् द्रव्यकी आवश्यक्ता और सिद्धि / MHREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE .. (जैन साहित्य समा लखनऊका लेख न. 1..)....... . ( लेखक-पं० मथुरादासजी वेरनी (एटा).निवासी, विद्यार्थी, गोपाल जैनसिद्धांत विद्यालय मोरेना) श्री वीरवर वैर वीर हो प्रभु तुम सुधीधर धीर हो / जगतापसे परितृप्तको तुम ही सुशीतल नीर हो! ... : 'सब सुखद सुखदाधार हो. सब जगत प्राणाधार हो / विनवू विना तुम अन्य नहिं मम भाक्तिका आधार हों॥ . . सभ्य महोदय ! . . . . . . . . . . . . . . इस असार संसार में निधर मी दृष्टिपात करते हैं सर्वत्र सुखेच्छुकोंकी ही संख्या दिखलाई देती हैं / समी अपने अपने पुखोंके कारणकलाप मिलाने में अतीव सन्नद्ध और व टिबद्ध दिखलाई पड़ते हैं / हम संमारका स्वरूप विचारते हैं तो वह बीमन्स ही जान पड़ता है " संसरणं. संसारः" अर्थात् संसार परिवर्तन शील है यहां कोई एकता कमी नहीं रहेता, सब वस्तुयें अपने अपने स्वरूपमें परिवर्तन करती रहती हैं, समुन्नत कमी अवनति दशापन्न और भवनति दशागत कपी समुन्नत दिखलाई देती हैं। ये सब बातें संबके प्रत्यक्ष प्रतिदिन होती रहती हैं अतः ध्यान देना चाहिये कि इस परिवर्तनका क्या कारण है। .: संसारका प्रत्येक प्राणी सुखोंकी इच्छासे ही. इधर उबर कभी किसी के पास और कभी किसीके पास जाता है जिस तरह विषम रोगापन्न रोगी के घरवाला जन किसी व्यक्तिसे अच्छे वैद्यकी वाचत सुनता है उधर ही दोड़ता जाता है और वहांसे सफलता न प्राप्त होने पर दूसरे. वैद्यकी या औषधिकी खोनमें लग जाता है ठीक इसी तरह यह संसारी प्राणी मी कमी. किसी और कमी किसी धर्म का आचरण करके सुखो होना चाहता है / यह अपने अमि-: कपित धानको जाने के लिए. जब भी समुद्या होता है तो इसे एक स्थान जानेके लिए मिन्नः . मिन्न मताश्रयी दार्शनिकोंसे निरूपित अलग अलग ही. मार्ग:दिखलाई पडते हैं. जो कि एक दूसरेसे सर्वथा विरुद्ध हैं। : ऐसे समय सुचारु विचारक महाशय ! उस जीवकी, क्या दशा होगी यह आप अच्छी तरह जान सकते हैं / ऐसे व्यक्ति की दशा हम उस व्यक्तिकी दशासे जान सक्ते हैं : 1. वीरोंमें उत्कृष्ट, 2 अंकानाम वामतोगतिः इस नियमानुसार वर; महावीर, 3 विशेषेईते : बीर सशः : ...

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