Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 99
________________ (४०) चमेली, आदि विचित्र पुष्पोपर विहार करनेवाले काले काले भ्रमर, व प्राकृतिक नानाप्रकारके दृश्य, कनककर्णिकामय कनक पृष्प मनुष्यके संकुचित हृदयकमलको जैसे सगद्द और हर्षित विकसित करते हैं, वैसे ही काकुंन, शृंगार, वीर, कल्या, शांतादि रस, उपमा उपमेय चित्रादि विचित्र अहङ्कारोंसे मनुष्यका स्हृ-चित्त, श्रृंगार, वीर, करुणा, या शांतर में भीग जाता है। तथा वार २ उन भानन्द लहरियों में लहराया करता है। तदनुसार जैन कार्योसे आनन्द और आनन्दके साथ २ अनुराम अनिर्वचनीय आनंदकी प्राप्ति होती है। ___अब यहां पर यह प्रश्न हो सकता है कि काव्य क्या वस्तु है और इसकी क्या व्युत्तत्ति है? श्री जैन व्याकरण मत नुसार इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार हो सकती है कि जिनोदेवता यस्य स जैन: जनानां काव्यानि, तेषां महत्वमिति नैन काव्यमहत्वम् ” अर्थात् जैन कायोंका महत्व, अथवा जैन काव्येष्वेव महत्वम् जेनकाव्य महत्वम् । अर्थात जैन कायोंमें ही महत्व (खूबी ) है, जैनेतर कायोंमें नहीं है। अथवा वेवल काव्य शब्दकी व्युत्पत्ति की जाय तोकि विश्च भश्च इति वो तो व्येति प्राप्नोति तत काव्य अर्थात् आत्मपुख या स्वर्गादि सुख, मोक्षको प्राप्त करता है या करता है उसे काव्य कहते हैं, क्योंकि "चतुवकिलाप्ति काव्यादेव प्रवर्तते " अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्षकी प्राप्ति काव्यसे ही होती है । अथवा काय ब्राह्मणः विः पक्षी इति कविः कविरिव अयमिति कविः तस्य कर्म काव्य अर्थात जिस प्रकार हंस पक्षी दुध पानीका भेदकर सार भाग दूधको ग्रहण करता है, उसी प्रकार कवि विद्व न दुर्जनतादि हेय पदार्थोको छोड़कर मार उपादेय मोक्षादि या तत्वों को प्रण कर आत्मसुखमें निमान हो परमपदको प्राप्त करता है। अथवा कान्यका प्रथम अक्षर. ककार ही लेते हैं, तब भी इसका स्थान सर्वोच्च सिद्ध होता है क्योंकि जैनेन्द्र मह वृत्ति घ.कारका स्थान कण्ठ कहलाता है " अह विसनीयाः कण्टका" अर्थात-भ कर्ग -विसर्ग ये काठ स्थानीय होते हैं, तथा यह रञ्जनोंमें प्रथम ही गणित होनेसे इसका सबसे वाँसे विशेष अर्थ प्रतिपादकत्व है, यही कहा है कि___ कारः सर्ववर्णानां मूलं प्रकृतिरेव च, काकाराजायते सर्व कामं कैवल्य. मेव च " अर्थात्-कार सर्व वर्णीमें मूल प्रकृति है और कहारसे सब काम तथा कैवल्य केवलज्ञान प्रप्त होता है। अथवा " कचते दीप्यते मस्तकोपरि शोमते " इति मावः । अर्थात सर्वोकृष्ट जैसे मस्तकपर मणि शे.मता है, वैसे ककारवर्ण शोमा सहित वांछित फरको देता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि ( रानापत्यंतगुणोक्तिराजादिम्पः कृत्ये च ट्या) अर्यान-इत्त नरेन्द्र महाभाष्य सुत्रसे "व्यग' प्रत्यय करके काव्य शब्द सिद्ध होता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114