Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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दिशिनिहितविजयस्तम्भः इति, इत्यादि एतादृशी नाम सत्यन्धरो
राजा ।
इस गद्य वाणविकी अपेक्षा वीर रस, समासभूयस्त्व, जो कि गद्यका खास गुण है, और इसीका नाम ओजगुण कहलाता है, क्योंकि "भोजः समासान्त्व दरम्" अर्थात -समासभूयस्व ओम गुण कहलाता है, वह गधेने अत्यन्त सुन्दर होता है, इस लिये इस गद्य में विशेषतया समास भूयस्य, पदलालित्य दिया है।
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श्रीमाणकवि अपनी कादम्बरी में एक जगह महाश्वेता नामकी नायिका भावी पति माण में विज्ञाप दिखलाते हैं । तथा महाश्वेता पत्तिमरणसे दुःखित हो विलाप करती है। हा अम्ब! हा तात ! हा सख्य ! इति व्याहरन्ती तथा हा नाथ जीवितविन्न अक्ष के मामेकाकिनी पशरणम करुणः विमुच्य यासि, ईपदपि विलोकय, कार्त्तास्मि, मक्ता स्मि, अनुरक्तमस्मि बालास्मि, अगतिकास्मि, दुःखितास्मि, अनन्यशरणास्मि मदनपरितापि
पाठको | देखो कविने किस चतुरतासे वर्णन किया है, या विचार मुक्त हैं कि इस गद्य अर्थ गौरव हैं ? और कोई कारुणिक रात मी नहीं विशेष प्रतीत होता । यहां पर हम पूछते हैं कि "मन दुःखावल्या होती है तथा पतिमरणसे खीकी अत्यन्त ही दुःखावस्या हो जाती हैं, लेकिन वाणवि वर्णन करते हैं कि माता पिता और सखियोंको सम्बोधन कर कि मैं दु:खित हूँ, भक्त हूं, अनुरक्त हूँ, 'अनाथ हूँ, इत्यादि कहकर कवि अन्तर्मे कहते हैं कि "मंदनपरिभूतास्मि" अर्थात् कामदेवसे परिपीडित हूँ, देखो, विचित्र बात है कि जो स्त्री पतिमरणसे दुःखित है वह ऐसा वाक्य कैसे कह सकती है ? मेरी समझ तो • कोई न कहेगा, वह केवल श्रीवाणविकी न्यूनता है ।
चा, अब इसका वर्णन कविसिंह श्री गदीम सिंह किया है। हां, मनोमाकार रूप हो, महागुण मणिद्वीप !हा, मानस विहारारूप ! हा मदनकेलिचतुरभूप मन पृप्येवरून 1. कांसि कासीति विलपन्ती, शोकविषमोहिताही लताड़ तो प्रात्यायन्ती काचित् देवता गिरनुस्थापयामास ।
इस रचना शैलीको आप जान सकते हैं किस सौन्दर्यसे, पदलालित्य तथा कारुणिक रससे कविने वर्णन किया है । और भी देखिये कि कहीं ९ इनका गद्य बिल्कुल मिटता है, सम्भव भी है कि इन्होंने इससे सहायता ली हो। जैसे
" वत्स | वलनिषूदनपुरोधसमपि स्वभावतीक्ष्णया विषणया कुर्वति सर्वपाडित्ये भवति पश्यामि नावकाशमुपदेशानाम् तदपि कमसहस्रेणापि कवलयितुमशक्यः प्रलयतरणिपरिष 'शोध्यो यौवन जन्मा मोहमहोदधिः, अशेष भेष प्रयोग वैफल्य