Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 34
________________ १ (२६) मी १४. वे गुणस्धान्तक रहता है । मन्तके विचरममें सातको म्युञ्छिति हो जाती है और अत :मयमें साताकी मी सान्य व्युच्छित्ति हो जानी है। - मुक्त जीव जब गुणप्यानातीत यानी गुणास्थानसे रहित हैं तो जब कि साता माताको बन्ध, उदय, रुसका मात्र गुणायनों में ही पाया जाता है, सिद्ध अवस्था में किसी भी कर्म का बयादि कुछ भी नहीं पाया जाता तो वहां: सुखदुःखकी कल्पना किसीतरह सी नहीं हो सकती। . ... . .. ........ . . अब यदि आप द्वितीय पक्ष आरमीय सुखका लेंगे तो निरपेक्ष दृष्टिसे आत्मीय सुखका कारण ज्ञान है वह ज्ञान मुक्त अवस्था में सर्वथा निगवरण हो जाता है अनः वहां अनन्त : सुख हो जाता है । दुःखका कोई कारण वहां उपलब्ध नहीं है जिससे कि सुखकी तरह दुःख भी माना जाय । उक्त युक्ति सुख दुःखका मोक्ष मी प्रसंग देकर अपना मनोरथ : सिद्ध नहीं कर सक्ते अतः जीको सर्वथा नित्य मान्ना सर्वथा श्रम मात्र है। सांख्य लोग भी जीव मानते हैं लेकिन अकिंचिकर मानते हैं यह उनका मानना भी युक्तिसमत नहीं है क्योंकि संसारी अवस्था में नीव कर्मका बन्ध करता ही है और नत्र कर्मका बन्ध करता है तो उसका फल भी अनेक प्रकार से भोगता ही है तथा सारूप जो . प्रकृतिको कर्ता और पुरुषको मोना मानता है वह पहिले दिखाया जा चुका है। ... अतः सांख्य सिद्धान्त मी मान्य नहीं कहा जा सका। .. अब कोई नो नोएको सन्तानको ही जीव मानते हैं उन्हे विचारना चाहिये कि. संतान विना सन्तानों के नहीं रहती अनः सन्तानी सदश्य मानना चाहिये । सन्तानीसे. सन्तानको प्रथक् मानेंगे तो बहुतसे दोष आवेगे। आत्माको जो व्यापक मानते हैं उनकाः • मत मी परीक्षाप्तह नहीं है। .' (शङ्काकार) व्यापक आत्माको सिद्ध करने के लिए यह अनुमान जन निर्दोष है. तो आत्माको न्यापक क्यों नहीं. मानना चाहिये । आत्मा व्यापक है.। द्रव्य होते हुए अमूर्त: होनेसे, जो जो द्रव्य होते हुए अमृत है. वह व्यापक है जैसे आकाश द्रव्य होनेपर अमूर्त : . आत्मा है अतः व्यापक मानना चाहिये, यह अनुमान भी ठीक नहीं है क्योंकि अमृत होनेसे यहाँपर अमृतका क्या अर्थ है। रूपादि नितमें हो उसे मूर्त, और तद्विरुद्ध अमूर्त । यदि यह समृका अर्थ ३रोंगे तो मनमें यी हेतु चंचा जायगा क्योंकि मन द्रव्य होकर रूपादि रहित है ही अतः मनको भी: व्यापकता मानना चाहिये अतः उक्त हेतु अनेका तिक होनेसे अदाणी रही है। यदि आप सब जगह न रहना सूर्त और सन जगह रहना । .. अमुर्त मानते हैं तो हेतु मी व्यापकतार्थक है. और सोध्य मी. व्यापकतार्यक है. अंतर साध्यान होनेसे पुनः मी हेत. मान्य नहीं कहा जा सकता. व्यापकताका बहुत खइन् । ...:.:.

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