Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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मिलते हैं । मथुराके एक नामांकित श्रीमान्के यहां पुत्र था जो अपने पूर्व भवका हा
पूरा पूरा और काविलं यकीन बतलाता था। इससे यह भी स्पष्ट सिंड होता है किं. जी .. पहिले शरीरमें था और एक शरीर छोड़ने पर उसने दूसरा शरीर धारण किया । अर्था • जीव था, है, और रहेगा। क्योंकि शरीरकी स्थितिकी अवधि सिद्ध है और जीवन
स्थितिकी अवधि नहीं है । वह अपरिमित कालसे है और पूर्ववत अपरिमित काल त रहेगा । शरीरका छोड़ना और ग्रहण करना कपड़े बदलने के समान है । अज्ञानसें जै . हम कपड़ों के संयोग वियोग, नवीन प्राचीन पनेमें हर्ष विषाद करते हैं वैसी ही शरीर मिथ्या अहं बुद्धि करनेसे राग द्वेष होता है । परन्तु शरीर-पुद्गल है . जड़ है जीवसे प है। आत्मा चैत्यन्य है ज्ञाता है और स्व है तथा अचेतन परणतिसे निराला है । यर्या वह रंग, रस, गंध रहित होनेसे इन्द्रिय गोचर नहीं है तथापि स्वानुमवं गोचर अवश्य है इसीका नाम भेद विज्ञान हैं और यही सम्यक् दर्शनका कारण है। :: भाधुनिक आन्दोलनकी सफलताके हेतु ऐसे विज्ञानकी अतीव आवश्यकता है। जिन्हें इस प्रकारका दृढ़ विज्ञान है वे ही शांति और सत्याग्रह धारणकर सक्ते हैं. वे ही सच्चे स्वयम् सेवक वन सक्ते हैं और उनके ऊपर दमन नीतिका वल नहीं चलता वे दमनको भी अमन समझते हैं और और अंतमें दमन ही का शमन होता है।
. सुवर्णकी घाऊको जन हम देखते हैं तब धाऊमें वनन आदिसे सोनेका अस्तित प्रतीत होता है पर सुवर्णका असली रूप प्रगट नहीं दिखतां । यदि घाऊको विवेक पूर्व भट्टीमें तपावें तो उज्वल. सुवर्ण जुदा हो जाता है और किट्टिमा जुदी रह जाती है इस तरह जब जीवात्मा तपकी अग्निसे. तपाया जाता है तब वह उज्वल होकर शरीरसे अलं हंदा हो जाता है ऐसा अशरीरी आत्मा पापके बोझसे रीता होकर ऊपरको गमन करता
और लोकाग्रमें नाके टिकता है (लोकायका स्वरूप धर्म द्रव्यके कथनमें स्पष्ट हो सकेगा। यह. अशरीरी आत्मा सब : पदार्थोमें सारभूत, शुद्ध, बुह, निरविकल्प, आनन्द कन्द चिञ्चमत्कार, विज्ञानधन, परमदेव होता है। यही हमारी आत्माका वास्तविक स्वरूप है
और हमें उपादेय है । ऐसे ही आत्मा पूर्ण आत्मबल सम्पन्न और सच महिंसक हैं । यहां · नौकर शाहीकी. हुकूमत नहीं पहुंचती और न पर राष्ट्र उनका रक्त चूस सक्ती है। ये सचे स्वराज्यको प्राप्त हैं । गुलामगीरी उनके स्वभावमें नहीं है उनके पूर्ण ज्ञानका चरखा सदा वनित रहता है और पूर्ण आनन्दका एकसा. सूत निपजाता है कभी तागा टूट नहीं सक्ताः ।
अभिप्राय यह हैं कि जिस प्रकार साबुनसे धोनेपर गंदे और मलिन कपड़े निर्मल होजाते. हैं उसी प्रकार पराधीन और इन्द्रियोंके विषयोंकी गुलामगीरीमें सुख माननेवाले हमारे माप ' जैसे गर्दै आत्सा पंड् द्रव्य विज्ञान के साबुनसे उज्वलं हो जाते हैं। नीसमयसारजीसें कहा है