Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 84
________________ (40) मादोमासमें पवन प्रकोप हे रामन् । शिशिर ऋतु (माघ फाल्गुन) में कफका संचय होता है, सुरमि (वसन्तचैत्र वैख) ऋतु में कफका प्रकोप होता है, और धर्मऋतु (ज्येष्ठ, आषाढ) में कफ शांतिको प्राप्त होता है, गर्मी में वायु संचयको प्राप्त होता है, श्रावणमास होता है, शरद ऋतु (आश्विन कार्तिक ) में पवन शांतिको प्राप्त होता है शरदऋतु में पित्त संचय होता है, मार्गशीर्ष पौष पास में पित्त प्रकोप होता है, माघ फाल्गुन मास में पित्त शान्त होता हैं । ..T तदिह शरदि सेव्यं स्वादु तिक्तं कषायं । मधुरलवणमलं नीरनीहारकाले । नृपवर ! मधुमासे तीक्ष्णतिक्ते कषायें । प्रशमरसमथानं ग्रीश्मकालागमे च ॥ : अर्थात हे सम्राटवर | इस शरदऋतु में मिष्टान्न, तिक्त, कपायरसको सेवन करना चाहिये, तथा नीरनीहोर ऋतुमें मीठा नुनखरा आमुछेके रसको सेवन करना चाहियेः । वसन्तकालमें तीक्ष्ण, तिक्त कंपायरसको सेवन करना चाहिये, तथा ग्रीष्मऋतु के प्रारम्भ होने पर प्रशमरसान (मिष्टान्न ) को सेवन करना चाहिये आदि लोकोपकारी विषयका इसमें बहुत ही योग्य रीतिसे वर्णन किया गया है । इस ग्रंथके अष्टमास में समस्त आचार जिमाका दर्शन नड़े विस्तार के साथ तथा साहित्यकी हालियको दिखाते हुए जिस योग्य सुचारुरीति से किया है वह कोई दूसरे ग्रन्थमें नहीं मिलता । यह भी इसके अनन्यलभ्य महत्त्व द्योतन करनेके लिये उदाहरण होगा अतः पाठकों मनोविनोदके लिये स्नानवि far एक विशेषण दर्शाते हैं। ' "" ॥ ॐ म कमर विकतोरगं नरसुरः सुरेश्वरशिरः किरीटको टिकरूपतरु पल्टायमान चरणयुग हम् अमृताशनकर विकीर्यमाणमन्दारन मेरु पारिजातसंतान कवनप्रसून स्पन्दमानमकरन्दस्वादो न्मदमिन्मत्ता लिलोपोत्ताछित निष्टिम्पाटतियापार गिलासः वर चरक्रमा रहेका चितवेणुबलकीपणवानक मृद त्रिवितादाहरी मेरी मम्माभूत्यनवविशु परततावद्धवादनाद निवेदित निखिल विष्टिपाधिपो पासमावसरम् अनेकामर विकिर चुकी किशलया शो का नोकहोलसम्म पुनरुक्त कल दिक्पाल हृदय परागमपरम् अखिलमुनेश्व पेलाउनातपत्रत्र व शिखण्डमण्डलम - णिमयुखरेखा लिख्य मानमखमुखरखे भरी मालतले तिढकपत्रम्, अनवरत पक्षविक्षिप्यमाणोमयदक्षचामरपरम्परांशु माधवलित विने यजन पनप्रासादचरित्रम् अशेषप्रकाशितपदार्थातिशायी शारीरप्रभाप रिवेषमुपतपरित्समास्तारं मतितिमिरनि हरम् अनवस्तु विस्तारास विकारोसार विस्फारितसरस्वतीत तर्पित समस्त सरोभाकर म्हमारातिपरिवृढो पाहा शनासनावसान ग्न रत्नकरपसरपल्लवितवियत्पादपादपापोगम्, अनन्यसामान्य समवसरण समासीनमनुज दिवि नसुन 2

Loading...

Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114