Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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प्रेमी जीवंधरको पत्र लिखती है । तथा विरहाग्नि दुःखसे दुःखित स्वामी जीवधर उसका क्या उत्तर देते हैं
मदीयहृदयाभिधं मदनकाण्डकाण्डोतं
नवं कुसुमकन्दुकं वनतटे त्वया चोरितं । . विमोहकलितोत्पलं रुचिररागसत्पल्लवं. . तय हि वितीर्यतां विजितकामरुपोज्ज्वला ॥ जी० ० ४ तथा स्वामीजी उसके उत्तरमें पत्रद्वारा यह भेजते हैं, :.
" मम नयनमराली प्राप्य ते वक्रपद्मे . तदनु च कुचकोशप्रान्तमागत्य हृष्टा । · विहरति रसपूर्णे नाभिकासारमध्ये
यदि भवति वितीर्णा सात्विया तं ददामि ॥ जी० च० ४ ० - काव्यरसिकमंडल ! नरा निरपेक्ष दृष्टिपर पक्षपातका एनक न लगाकर कहिये । प्रेमी प्रेमिकाओंके ऐसे सुन्दर पत्र क्या, और किसी कविने अपने नेता उसकी प्रेमिणो के साथ करवाये हैं; इसका सौभाग्य जी० ० के चयिता श्रीयुत महाकवि हरिश्चन्द्रनीको ही प्राप्त हुआ है। . : ........:
.. पाठकों ! "जीवन्धरचम्पू" उत्तमतामें प्रायः सम्पुर्ण उल्लेखनीय है । अतः भोर हमको उल्लेख - करना चाहिये था किन्तु मनलतक पहुंचने में मार्ग अभी. विशेषः त्य करना है; अतः हम चम्पूको छोड़कर श्रन्यकाव्य के प्रधान भेद " महाकाव्य में उत्तमता दिखाते हैं। ............. .
पाठकवृन्द ! जिस तरह वैष्णव महाकाव्यपंज मानकल आप लोगोंकी निगाहमें आते हैं उसी तरहसे जैनमहाकाव्य पुत्र भी उससे किसी हालतमें भी कम नहीं है । यद्यपि मैंने : लेखके पूर्व मागमें इस बातको दिखला दिया है कि बौद्ध तथा शंकराचार्य, महमुदगज़नवी; : औरंगजेब बादिके जमाने में जैन ग्रन्थराभोंके साथ २ जैनकाव्योंका मी प्रक्षय हुआ था फिर ... मी इस प्रक्षप युगसे वृहदवशिष्ट काव्य माग भारतमें उपस्थित हैं।
. आप लोगोंको जो काव्य दृष्टिगोचर होते हैं वह प्रायः सम्पूर्ण निर्णयसागरके छपे हुए ही होंगे, क्योंकि जैन समान अपने धनके सामने ऐसे रत्नोंको थोड़ा ही कुछ, मूल्यवान
समाती है ? नहीं तो मारतादि देशोंमें रक्खे हुए अपने काव्यरत्नोंको प्रकाशित न करती ? ... देखिये जितने भी जैन काव्य निर्णयसागर से प्रकाशित हुए हैं, वह सब जयपुरकी सरकाः
रीलाबेरीसे प्राप्त हुए हैं। यह लायब्रेरी प्राईवेट तथा अन्दर है। इस लाइब्रेरी, जैने : कान्योंकी उपस्थिति बहुत है, उसमें से बहुत थोड़े प्रकाशित हुए हैं किन्तु वैष्णव काव्य