Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 73
________________ ...'..RE: - .त्यके लाखों ग्रंथरानोंको नष्ट कर, जैनप्रमितिसे जो संसारको वंचितकिया है। शायद इसीसें देवने प्रकोपकर भारतमाताके ३० कोटि जनोंकी स्वतंत्रताको अपहरणकर दारुण दुःखसे दुःखित किया है ! बौद्धमतकी राज्यसत्ताके समयमें जब कि भारतवर्षने प्रशान्त जैनधर्मको . • विदां कनेमें किसी प्रकारकी भी कंसर नहीं रखी थी, वृहद्ग्रंथराजोंके साथ.२ जनमहा: काव्योंका भी वृहदश नाशको प्राप्त हो गया था और जब कि श्री शंकराचार्यने जैनधर्मको नष्टीभूत करने के इरादासे वर्षों गरम पानी कराकर असंख्य जैनग्रंथराजोंको अग्निदेवकी भेट करदी। . हम नहीं लिख सकते हैं कि जैनसाहित्यके प्रसार करनेके कारणभूत महाकाव्योंका : . इस पूर्वतिहासमें कितना प्रक्षय हुआ होगा। अब हम अपने विचारशील पाठकोंको इस बृहत् पूर्वेतिहाससे अलग कर प्राप्त - अभीके करीब ३०० वर्ष पहिले ( अर्थात् मुगल बादशाह औरंगजेब ) के जमानेमें ही .लिये चलते हैं। . - मुगल बादशाहतकी जड़को काटनेवाले इस बादशाहके जमाने में हिंदू अन्योंकी ..तरह क्तिने ही महीनों तक जैनग्रंथराजसमुदाय गाँवोंकी तरह जलते रहे । भारतवर्षीया...' ध्यात्मिक क्षय करनेके लिये जो भारतके असंख्य ग्रंथमँडार पचनगणोंने नष्ट किये उसमें ... भी महाकाव्योंका प्रबल क्षय हुआ। ... उस ग्रन्थरानों के प्रक्षय युगके समय धार्मिक वीरोंने जो ग्रन्थरानि कैदरा गुहा-'दि गुप्त स्थानों में छिपाकर रक्षा की थी, उसमें भी बहुग्रंथराशि हमारे विद्याप्रिय पश्चिमीयः विद्वान् (जर्मनी, इंगलैंड, आस्ट्रेलियादिके रहनेवाले) प्रलोभन वा डरसे परतंत्र जैन संसार .. एवं च कर्तव्यपथसे विचलित - भारतवर्षसे लेगये। इसमें भी. वृहदवशिष्टभागः भट्टारकों, " अन्य भंडारोंमें दीमक, अ य कीटोंका आहार हो रहा है । अतःनों कुछ भी काव्यशास्त्र समुपस्थित है, उन जैन काव्यग्रन्थों का महत्त्व भव्य पाठकोंकी. ही भेंट करता । जैन काव्यका महत्व ' इस शब्दके उच्चारण करनेसे सहृदयके हृद्यमें जो भाव प्रादुर्भाव होता है, वही 'जैन काव्यका महत्त्व' इसका विग्रहलभ्यार्थ है। इसमें शब्द हैं जैन-काव्य महत्त्व । ...... यहां जैन शब्द संबंधी वाचक होनेपर भी इसका अर्थ सुलभ होनेसे इसके व्याख्यानको लक्षित न करके 'काव्य' शब्दका लक्षण लिखनेको प्रारंभ करते हैं। किसी भी चीज़झा लक्षण या स्वरूपमें जबतक सम्पूर्ण उहापोह नहीं होता है, तब तक सहद योंके हृदयाकाशमें उस पदार्थकी सुनिर्मल ज्योति ठीक ठीक नहीं चमकती है। अब उस १. काव्यका लक्षण "काव्यप्रकाश” ग्रंथके रचयिताने इस प्रकार किया है

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