Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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(६४).
कि जबसे पदार्थ हैं और जब तक पदार्थ रहेंगे तब तक बराबर परिवर्तनकी रीति चालू
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रहेगी अर्थात् अनंत भूतकालसे यह पद्धति चालू है और अनन्त भविष्यत काळतक रहेगी। ऐसा क्यों होता है ? यह विचारें तो अवस्थासे अवस्थांतर होनेका असली . अर्थात उदान कारण वे ही पदार्थ हैं जो अवस्थान्तर हुए हैं। यदि दूधमें दही बननेका खासा न होता तो किसकी मजाल थी कि दूषसे दही बना देता । पर विना बाह्य कारण के भी काम नहीं हो सक्ता 1 विना रई घुमाये अर्थात् मथन किये बिना मक्खन नहीं मिल सक्ता है । दूसरा दृष्टांत लीजिये कि जो कुंभकारका चक्र घूमता है उसका उपादान कारण चक्र स्वयम् ही है कुंभकार दंडा आदि प्रेरक कारण हैं परंतु यदि वह खूंटी जिस पर चक्र घूमता है वह न हो तो भी चक्र न घूम सकेगा ऐसे कारणोंको उदासीन निमित्त कारण कहते हैं।
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बस ! सब पदार्थोके अवस्थान्तर होने में खुंटीके समान जो उदासीन निमित्त कारण है वही काल हैं। जीव पुद्गलों आदिकी हाकतें बदलने में वह प्रेरक नहीं, निमित्त रूप है । वह मूर्ती पुग्देलोंसे भिन्न लक्षणोंवाला अर्थात् अमूर्तक, और नीवके चैतन्य धर्मसे विलक्षण अर्थात अचेतन ही होना चाहिये ।
मिनिट, घंटा, पहर, वर्ष आदिको लोग व्यवहार में काल कहते हैं पर वह पुद्गलों की परणति से प्रगट होता है अर्थात् घड़ीकी बड़ी सुई जब बारा नंबरोंपर चक्कर लगा देती है तब लोग कहते हैं कि एक घंटा हो गया ।
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स्वामी कुन्दकुन्दने कहा है कि " तझा कालो पहुच भवो " अर्थात् व्यवहार काल पुदगलाश्रित है परन्तु इस व्यवहार कालसे वास्तविक काल जो पदार्थोको अवस्थान्तर कराता है निराला है वह जीव द्रव्यके समान अमूर्तीक वस्तु है भेद इतना है कि जीव माप में वड़ा है। और कालका प्रत्येक कण परमाणुके बराबर है । परन्तु परमाणु मूर्तीक है और काला अमूर्तीक है | चांदीकी एक पाट लेओ जो लाखों परमाणुओं के बराबर है यह जीव पदार्थका दृष्टान्त है । अव चांदी की एक रेतनका एक बहुत ही छोटा कण लेओ यह कालाणुका दृष्टान्त है । ऐसे कालाणु सब लोकमें भरे हुए हैं । यह स्मरण अवश्य रहे कि चान्दीकी रेतन पुदगल है उसमें स्निग्धता रुक्षता है जो मिलकर पाट बन जाती है पर कालके दाने में स्निग्धता रूक्षता नहीं है इससे कालके दाने एक दूसरेसे कभी नहीं घ सक्ते हैं । इसी कारण वे अकाय हैं ।
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- जिस तरह जीव दूसरोंको जानता और अपनेको भी जानता है उसी तरह काल पदार्थ दूसरोंको वार्ताता और अपने को भी वर्ताता है । जब कि वह स्वयम् वर्तता है तो उसमें पर्यायें उपजतीं और लय होती हैं । ये अरूपी पर्यायें षट् गुण पतित हानि वृद्धिका स्वरूप समझने से बुद्धिमें आ सक्ती हैं परन्तु यह विषय सक्ष्म है यहां लिखने से लेख