Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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कान्ते धर्माधर्मद्रयाण्यमासौ छोकः : यांनी जिनमें जीवादि पदार्थ देखें नांप उसे लोक कहते नहीं है वहां के आकाशको अलोकाकाश कहते हैं।
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हैं। महांपर
शंका- जिस तरह आप धर्माधमनीवादि द्रव्यका आधार आकाश मानते हैं तो आकाशका मी आधारान्ता ( अन्य आधार ) मानना चाहिये या आकाश के सजीवादिकको मीस प्रतिष्ठित मानिये, ऐसी शध नहीं कर सक्ते । क्योंकि आकाशः सर्वतो अनन्त है अतः उसको कोई आधारान्तर कल्पित नहीं किया जा सक्ता ।
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शंका- आधार घेगमात्र पूर्व उत्तर धर्मियोंका होता है तो जन धर्मादिका आका - शर्मे माधार मधेय मात्र है तो पूर्वोत्तर भाव भी गया जाना चाहिये और ऐसा मानने से ' योंकी अनादिना खंड़न होता हैं. ऐप शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि पूर्वोत्तर officer ही आपार माय पाव होना, यह कोई नियम नहीं है | भल्पामै ज्ञान दर्शनादि या में रूप रादिक इन समममवालों में मी आवार आधेय भाव देखा जाता है। नाकाशमैः" रुक्षणं". " गुणपर्यं ६ यं " आदि तीनों ही पके लक्षण सम्यक् . 'रीत्या संघटित होते हैं और वह कैसे सो अंगाडी दिखायेंगे ।
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शंका - आकाशम जो अंशाह देव लक्षण किया सो भक्तिप्राप्तिदोर दुषित है क्योंकि श्यावच्छेदकावच्छ प्रतियोगिताकमेदसामानाधि
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करणं अतिव्याप्तिः " जिस धर्मसे सहित लक्ष्य होता हैं, उस aint camaraedes नापसे कहते हैं और attaावच्छेदकसे अवच्छिन्न है उसे लक्ष्य कहते हैं। यहां रक्ष्तावच्छेदक आकाशत्व है तथा लक्ष्यतावच्छेदकावच्छिन 'unta है और Friarsः सप्रतियोगिः इस नियमके अनुसार आकाशका प्रतियोगि ( प्रतिपक्षी ) मकान धर्म अधर्मादि भी जीव पहलोंको अवगाह देते हैं फिर आकाश हीका यह रक्षण कैसे हो सकता ।
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उक्त शक नहीं करनी नाहिये । प्रथम तो आपने जो अति व्याप्तिका लक्षण बताया. वही ठीक नहीं है क्योंकि मानकीजिए आंध्र (घोड़े का हमने सास्त्रादिमत्व यह लक्षण किया तो आपका उक्त अतिशतका लक्षण यहां घट ही जाता है यानी रक्ष्यतावच्छेदका हुआ उसका जो प्रतियोगी गौ उसमें सानादिमन्त्र रह गया लेकिन अवका सानामि क्षण करना यह असंभव दोष कहा है क्योंकि "दक्ष्यतावच्छेदक व्यापकी भूतामाद प्रतियोगित्वं" ऐसा असम्भवका दक्षण किया है। अश्व का सास्त्रादिमान् लक्षण करने परक्ष्यतावच्छेदक . अधःत्र व्यापकीभूत (यांनी अश्धाव जिनमें रहे) हुए रूप प्रतियोगित्य हो सो सास्त्रादिमत्यका अभाव है अतः
सत्र संघ, उनमें जिस"
का साथ मात्र लक्षण है वह जिस धर्मको लेकर अतिव्याप्ति दोषसे भतिव्याप्त उसी
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