Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
View full book text
________________
तथा च बहुतसे अनुमान जीवके साधक हैं । जैसे चक्षु आदि इन्दियां कर्ता नो जीव . उसके द्वारा योजित होकर काम करती हैं, क्योंकि वे (चक्षु आदि) करण होनेसें वसुंग
के समान यांनी वसूम जैसे पढ़ईसे योजित होकर काम करता है उसी प्रकार इन्द्रियां मी "जीवके द्वारा प्रेरित हो कर कार्यमें लगती हैं।
___सांख्य जीवको माते हैं परन्तु कूटस्थ नित्य मानते हैं । यह उनका मानना मी , युक्तिवाधित है। क्योंकि जीवके सुख दुःखादिरूप पर्यायोंसे सदा विकृति होती रहती है।
कमी सुख है तो कम दुःख, कमी ज्ञानता है तो कमी मनानता । जब नीवपर्यायोंसे विकृत होता रहता है तो उसे नित्य कैसे कहते हैं। . . , . (शा) आपने सुख दुःखादिरून पर्यायोंसे नीवको विकृन सिद्ध करके नित्यताको खंडन किया है सो ठीक नहीं है क्योंकि सुख दुःख आदि सब पर्याय नीवसे भिन्न रहती हैं। यदि अभि नमानोगे तो मोक्षक जीवको भी सुखी व दुःखी मानना चाहिये।।
यह मी विना विचारे मुखमस्तीति वक्तव्य का अनुकरण करना है। क्योंकि यदि जीवसे सुखदुःख आदि भिन्न मानेंगे तो यह इस जीवके मुखदुःख हैं यह कैसे माना जा . सकता है । और नित्य अनुपकारी होता है अतः वहां सुखादिका समवाय मी नहीं मानसकते। .. - और यदि जीवका उपकार भी मानेंगे तो आप उसे जीवसे मिन्न मानेगे तो फिर वह प्रश्न जो कि सुखशावके प्रथक माननेपर उठा था उठेगा। और यदि भभिन्न उपकार मानेगे तो फिर विकृत होनेसे नित्यता नहीं बनसकी और नो, आपने मुक्त जीवको भी सुखी वा दुःखी होने का प्रसंग दिया था सो भी ठीक नहीं है क्योंकि सुखदुःख अ.दि जीवसे भभिन्न हैं इसका जो आपने अर्थ निकाला सो आपकी बुद्धिकी हारी है । अमिन्न वह- . नेसे आपने सर्वथा अमिन्नका पक्ष ग्रहण करलिया। • अब हम आपसे पूछते हैं कि सुखदुःखसे आप क्या लेते हैं ? शारीरिक सुख या
आत्मीय सुख जिनको कि दुसरे शब्दों में ऐहिक और पारलौकिक सुख. मी कह सक्ते हैं। यदि सुखदुःखसे शरीरके द्वारा होनेवाले सुखदुःख देते हैं जो कि आत्माको शरीरकी ब. स्थामें ही अनुभून होते हैं तो कारणके विनाश होनेपर कार्य विनष्ट होजाग है अतः शरीरसे होनेवाला मुखदुःख मी अपने कारण साता और अताताके अलग होनेपर अलग हो जायगा । अतः मोक्षमें रहनेवाले जीवको सुखी या दुःखीपनेका प्रसंग नहीं मासक्ता । माता वेदनीयका प्रमच गुणतक बन्ध होता है तथा साताका वध तेरहवें गुणस्थान तक होता है। माता साता दोनों का ही १४ वें के कुछ भागोंतक उदय रहता है, अन्तके मागोंमें साता असातामें से एकका मी उदय नहीं रहता तथा साता भसाता दोनों का सत्र