Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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(*).
अर्थात जो सर्वदा स्थिति स्वमात्र है उसे धन्य कहते हैं । पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा से उत्पाद, are, धौव्यका द्रव्यसे प्रथक भाव है और द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे अटक मात्र है क्योंकि द्रव्यसे अलग कहीं उत्पादादि नहीं देखे जाते । यहां एक में उत्पादादिका भेद अभेद दोनो ही हैं अतः भेद अभेद परस्पर विरोधी होनेसे एक जगह नहीं रह सकते। ऐसा नहीं कहना चाहिये जैसे कि एक पदार्थमें अपने अमोधायक ( वाचक ) के अभिधान (कथन) की अपेक्षा अमिता है और पर अभिधायकके अभिधानकी अपेक्षा अनमिवेपता है या स्वरूपकी अपेक्षा रूपता और पररूपाकारकी अपेक्षा अरूपता है उसीतरह पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा भेद और द्रार्थिक नयको अपेक्षा अभेद समझना चाहिये। यहां थोड़ेसे में पर्यायार्थिक नय द्रव्यार्थिक नय लेख्य होनेसे लिखता हूं । जो साइदिमामण्णं अविणाभूदं विशेषरूपहिं । णाणा जत्ति वलादो दव्वत्थो सो णओ होदि ॥
अर्थात् - 'विशेष रूप से अविनाभावी (विशेषरूपके विना जो न हो सके) जो सामान्य स्वरूप उसे युक्तियों द्वारा ग्रहण करनेवाली नयको द्र० गर्थिक नय कहते हैं । द्रव्य में 'सामान्य विशेषय ये दो धर्म रहते हैं। विशेषको अवधान कर और सामान्यकी मुख्यतासे जो पदार्थका ग्रहण करता है उसे पार्थिक तथा सामान्यकी अप्रधानता पूर्वक विशेषकी मुख्यतासे जो पदार्थ पर्यायका निरूपण करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं । न्यके भेद प्रभेदोंकी संक्षेपसे यह संदृष्टि हो सकती है
द्रव्यार्थिक
?
* अध्यात्मव्या० शास्त्रीयद्रव्या०
|
संग्रह,
पर्यायार्थिक
"
x अध्यात्म पर्या ०
व्यवहार
1.
नैगम,
ऋजुसूत्र शब्द. सममिरू एवंभूत
+
1
T
वर्तमाननै • भूतनगम, भावाने ० स मान्यतं ० विशेषसं० शुद्धव्य० अशुद्ध. स्थूल ऋजु० सुक्ष्मऋजु.
शास्त्रीय पर्या०
* इसके भेद - विधिनिरपेक्ष० शुद्ध, सत्ताग्राहक० शुद्ध, भेद विकल्यनिरपेक्ष० शुद्धि, शुद्ध, मेदकल्पनासापे० अशुद्ध, अन्वयद्र०
•
"कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध, उत्पादव्ययसा० स्वद्रव्यादिप्राह • परद्रव्यादि परमभावग्राही ● * इसके भेद - अनादि नित्यपर्या०, कर्मपाधिनिरपेक्ष अनि.
अशुद्ध,
शुल
आदिनित्य०, अनित्य शुद्ध, अनित्य कर्माधिपापेक्ष अनित्य अशुद्ध,
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