Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ मानेसे फीकी पड़ गई है और वे कौनसे पुण्यशाली हैं जो सूर्योदयसे चक्रवाकके समान आपके आगमनसे अपनेको कृतार्थ समझेंगे इत्यादि । उक्त बातोंसे यह भलीभांति विदीत होता है कि जिससे मनोरञ्जन हो वही. साहित्य कहलाता है: पूर्वमें न्याय साहित्य आदिके ग्रन्थ बनाकर पहिले विद्वद्गोष्ठीमें पाप्त करालिये जाते थे और पुनः उसे पविलकके प्रचारार्थ देते थे। ऐसा करनेसे सभी ग्रंथ नों कि पब्लिकके प्रचारमें आते थे अपनी महत्ता और गुरुतासे प्रतिष्ठित रहते थे। . . पं. श्रीहर्ष नैपधचारित्रको बनाकर प्रथम कवि मम्मठके पास ले गये थे। पाणनीय मष्टाध्यायीको बनाकर विश्वामित्र ऋषिके पाप्त ले गये थे। उन्होंने जब पूछा कि विश्वामित्र शब्दकी सिद्धि किस प्रकारकी है तब उन्होंने कहा कि महाराज इसके लिए "मित्रे च।" यह स्वतन्त्र सूत्र बनाया है। यहां सूत्रमें ऋषि शब्द देनेसे माणवक वाची शब्द विश्वामित्र ही रह जाता है अतः यह इसी नामके लिए स्वाप्त सूत्र है इसपर मुनि बहुत प्रसन्न हुएं और इस प्रकार व्याकरणकी परिपूर्णता जानकर उस व्याकरणको पास कर दिया। पूर्व मैं कह चुका हूं कि पब्लिक प्रचारार्थ जो ग्रन्थ दिये जाते थे वे पूर्वतः ही . अच्छी तरह परीक्षित करलिए जाते थे और ऐसा करनेसे वे पास ग्रन्थ आदमीके नैतिक बल चारित्र आदिके विषयमें सुशिक्षा देने के लिए होते थे। आजकल कितनी ही ऐसी भद्दी पुस्तकें हम लोंगोकी दृष्टिात होती हैं जो बच्चों युवकादिकोंके चारित्रपर बहुत बुरा प्रभाव डालती है अतः हम इस प्रकारकी पुस्तकोंको कभी श्रेष्ठ साहित्यकी गणनामें नहीं गिन सकते क्योंकि श्रेष्ठ साहित्यका जो आत्माको शान्ति मार्ग लाना लक्षण है वह उनमें नहीं घटना। इन सब बातोंसे विदित होता है कि साहित्य एक आत्माको रस है जिसके पढ़नेसे आत्मा अपने स्वाभाविक गुणोंकी तरफ उन्मुख हो वही श्रेष्ठ साहित्य है। साहित्य ग्रंथों में भी जहां ९ रसोंका वर्णन किया है वहां भी सर्वतः उगरि शान्तिरसको ही बताया है क्योंकि पथिक जिस तरह सब जगह घूम आता है लेकिन अन्तमें अपने घरपर ही मानता है उसी प्रकार साहित्य भी आत्माको जगह २ घुमाकर अन्तमें आत्माका स्वरूप जो शान्ति है उसकी ही तरफ उन्मुख करता है। आत्मा औपाधिक वृत्तिका आचरण बहुत समय तक नहीं कर सकता लेकिन स्वाभाविक नो वृत्ति है उसके हमेंशा धारण करे रखनेमें भी उसे किसी प्रकारकी असुविधा नहीं होती है। - उदाहरणके लिए लीजिए कि मनुष्यके शरीरको अपने अवयव जैसे वल. हस्तादिका वजन कुछ वजन रूपसे प्रतीत नहीं होता और यदि उसके सिरपर १० सेरकी ही एक गठडी रख दी जाय तो वही उसे भाररूप मालूम पड़ने लगती हैं। दूसरी तरह

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 114