Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 8
________________ करना बहुत कठिन है । हूत्व उदात्त अनुदात्त आदि सब प्रकारका ख्याल करके उच्चारित जो मंत्र है वही अपना कार्य पूर्णतः सिद्ध करता है क्योंकि "नहि मंत्र क्षरं न्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् " मंत्र शुद्ध उच्चारण न करनेसे न केवल आदमी अपने साध्यसे भ्रष्ट ही . होता है किंतु अपना अनिष्ट भी कर लेता है। इस प्रकार मन्त्रके उच्चारण तथा साधनाकी रूपतासे बचने के कारण संस्कृत साहित्यका .. प्रचार हुआ । संस्कृत साहित्यमें भी भांति २ की असुविधायें देखकर साधारण जनताके आनन्दार्थ हिन्दी साहित्यका आरम्भ हुआ। जिन मन्त्रोंको शुद्धाशुद्धका विचार रखते हुए हम केवल एक घंटे बोल सकते हैं। यदि उसके स्थान में संस्कृतकी कोई गद्य या पद्य हो तो हम ३ घंटे बोलकर हम थक जाते हैं उतनी ही हिन्दीकी गद्य या पद्य हम बराबर ६ घंटे बोल सकते हैं। गाना तो और भी अधिक समय तक गा सकते हैं। आप देखेंगे कि हिन्दी गायक बराबर अाठ २ दश २ घंटे एक जगह बैठकर अच्छी तरह गा सकते हैं। यदि गायकसे संस्कृत के बारेमें कहा जाय कि तुम ४ घंटे बर:वर बैठकर गाओ तो वह किसी हालतमें नहीं गा सकता क्योंकि हिन्दीकी अपेक्षा संस्कृतका उच्चारण बहुत परिश्रम . युक्त है और मन्त्रका उच्चारण उससे भी बहुत कुछ परिश्रमपूर्ण है। इससे विदित होता है कि मंत्रके साहित्यमें अड़चन देखकर ही संकृत साहित्य और जो स्व स्वल्पशक्तिके कारण संस्कृत साहित्यसे लाभ नहीं उठा सकते उनके लिए हिंदी साहित्यका निर्माण किया गया है। बहुतसे महाशय काव्यके ग्रन्थोंको ही साहित्यकोटिमें परिगणित करते हैं लेकिन यह उनकी भूल है। बहुतसे सिद्धांत न्यायके ग्रंथ भी पूर्णतः साहित्यकी उन्नतिके परिदर्शक हैं। साहित्यका कार्य मनोरजन करना है और यह मैं पहिले ही कह चुका हूं कि श्रेष्ठ · साहित्य ग्रंथ वही कहा जा सकता है जो संसारकी अवस्थाका दर्शन कराकर अंतमें मोक्षके लिए आत्माके परिणामोंको ऋजु करे। साहित्य आत्माका एक रस है यानी श्रेष्ठ साहित्यको पाकर आत्मा अपने भूले हुए स्वरूपको पुनः प्राप्त कर लेती हैं। सिद्धांतका ग्रन्थ गोमट्टसार . साहित्यसे खाली नहीं है उसी प्रकार न्यायका ग्रन्थ अष्टसहस्रो भी साहित्योन्नत ग्रंथोंमें एक प्रधान ग्रंथ है अष्टप्तहस्रो पड़े हुए महाशय इस बातको भली भांति जानते होंगे कि अष्टसहस्रीके कती महोदयने ३६३ मतोंका किस खूबीसे खण्डन किया है। अष्टसहस्री पढ़कर जीव अपनी आत्माका स्वरूप भली भांति जान लेता है जो कि साहित्यका आनय कार्य है। अष्टसहस्रीके कर्ताने स्वयं लिखा है श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतेः किंमन्य सहवख्यानः । विज्ञायते वयव स्वसस्यपरसमयसभाम: ।। .

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