Book Title: Shaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Author(s): Mathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 6
________________ (२ ) अमेरिका जर्मन आदि दूर देशोंमें नवीन लेख भेजनेकी प्रथा अब भी पायी . जाती है और तत्रत्य विद्वान उन लेखौको देखकर नौबिल प्राइज, पी० एच० डी० आदिकी .. पदवियोंसे अलंकित करके सन्मानित करते थे। पूर्वमें आचार्यों बड़े २ विद्वानोंको वादीभसिंह, पूज्यपाद आदि पदवियां वितरित करके उनका गौरव बढ़ाया जाता था, उस पूर्व प्रथाका कुछ अनुकरण करते हुए ब्र० शीतलप्रसादजी तथा लखनऊकी जनताने षट् द्रव्यकी आवश्यकता व सिद्धि, तथा जैन साहित्यका महत्व इन दो विषयोपर लेख लिखकर जैन साहित्य सभा लखनऊ भेननेकी सुचना " जैनमित्र" आदिमें प्रकाशित की थी। उक्त दो निबन्धोंपर भिन्न २ स्थानीय विद्वानोंके ६ लेख माये जो कि "दिगंबर जैन। मासिक पत्रमें क्रमशः छप चुके हैं और पुस्तक रूपमें भी छपाये गये हैं। पूज्य ब्रह्मचारी शीतलपसादजी व लखनऊ जनताको उक्त दो निबन्धोंपर लेख लिखवाकर न सिर्फ उन विषयों को उन्नत करनेका यशोलाभ हुआ है बल्कि विद्वानोंका गौरव बढ़ाकर जैन समाजमें भी अन्य समानोंकी तरह लेख लिखनेकी प्रथा या यों कहिये कि प्राचीन प्रथाका जीर्णोद्धार किया है। . जैन समाजमें इस प्रथाका अभाव कुछ अधिक दिन पहिलेसे ज्ञात होता है नहीं तो इतने अधिक विद्वानों की उपस्थितिमें इन महत्वपूर्ण विषयोंपर केवल छह ही लेख न आते । इसमें हम सर्वथा लेखकोंका ही प्रमाद नहीं कहते बल्कि कुछ समानके नेताओंका भी है । मुझे आशा है कि अबसे ऐसे शास्त्रीय निबन्धों परं यदि समाजकी दृष्टि रहेगी तौ पुनः लेख लिखाये जानेपर ६की संख्यासे कहीं बहुत अधिक . संख्या में विद्वानों के लेख आसकेंगे और उपाधि आदि देनेकी पूर्व प्रथाका भी समानने यदि अनुकरण किया तो इप्स कार्य का बहुत महत्व हो जायगा और उस समय न सिर्फ जैन विद्वान ही बलिक निष्पक्षपाती अन्य जातीय विद्वान् भी इन विषयोंपर निबन्ध लिखेंगे और इस तरह जैन धर्मकां एक सुलभ रीतिसे दूर २ प्रदेशोंमें प्रचार हो जायगा, हमारी समझमें इस कार्यका पूर्ण प्रशंसालाभ ब्रह्मचारी शीतलप्रशादजी व लखनऊकी जैन जनताको है । आशा है कि अगाड़ी भी इस प्रथाका अनुकरण किया जायगा। . .. - सज्जनो ! षद्रव्यकी आवश्यकताके विषयमें तीन लेख समुपलब्ध हुए . हैं और उन लेखोंसे पूर्णतः यह बात स्पष्ट हो गई है कि द्रव्य छह ही हैं न सात और न पांच, द्रव्यकी संरूपा ६ ही है। इस विषयमें विशेष कुछ कहना नहीं है क्योंकि अन्य मत कल्पित द्रव्य व पदार्थों की संख्या इन्हीं ६में अन्तर्भूत हो जाती है। यहां द्रव्य पदार्थ

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