Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 20
________________ भगवान् महावीर : जीवन और सिद्धान्त सहअस्तित्व 1 महावीर अनेकात्मवादी थे । उन्होंने बताया- आत्माएं अनन्त हैं । वे किसी एक आत्मा के अंश नहीं हैं । प्रत्येक आत्मा दूसरी आत्मा से स्वतंत्र । सब आत्माओं में चैतन्य है, पर वह सामुदायिक नहीं है । वह हर आत्मा का अपना-अपना है, स्वतंत्र है । जैसे आत्माएं अनेक हैं, वैसे ही उनकी योनियां भी अनेक हैं । कोई आत्मा पशु-जीवन में है और कोई मनुष्य जीवन में । मनुष्य जीवन में भी अनेक विभाजन हैं। कोई मनुष्य शीत कटिबन्ध में जन्मा हुआ है तो कोई उष्ण कटिबन्ध में । कोई गोरा है तो कोई काला है। महावीर के युग में भारतीय मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन चार वर्णों में बंटा हुआ था । ये विभाजन मनुष्य के अपने कर्म - संस्कार, भौगोलिक वातावरण और समाज-व्यवस्था के आधार पर हुए थे। पर मनुष्य का अहंकार प्रबल होता है । जिस वर्ग को अहंकार प्रकट करने की सुविधा मिली, उसने उच्चता और नीचता की दीवारें खड़ी कर दी। जन्मना जाति स्थापित हो गई। उच्च कहलाने वाले मनुष्य नीच कहलाने वाले मनुष्य के साथ पशु से भी हीन व्यवहार करने लगे। इस स्थिति में महावीर ने चिन्तन किया कि वस्तु जगत् में समन्वय है, सहअस्तित्व है तो फिर मानव जगत् में समन्वय और सहअस्तित्व क्यों नहीं होना चाहिए ? इस उत्प्रेक्षा के आधार पर उन्होंने मैत्री का सूत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा- - सब जीवों के साथ मैत्री करो । मैत्री का सिद्धांत बहुत अच्छा है । सिद्धांत का सौन्दर्य व्यवहार का सौन्दर्य बन जाए यह सरल नहीं है । स्वभाव, रुचि और चिंतन की धारा भिन्न होने पर मैत्री टूट जाती है। महावीर ने उसे साधने का सूत्र दिया — सहिष्णुता । उन्होंने बताया- भेद के पीछे छिपे हुए अभेद को मत भूलो। तुम जिससे भिन्न हो उससे उतने ही अभिन्न हो । जिससे अभिन्न हो उससे उतने ही भिन्न हो । किसी से सर्वथा भिन्न नहीं हो । जब सबसे भिन्न-भिन्न हो, तब भेद को सामने रखकर कैसे किसी को शत्रु मानते हो और अभेद को सामने रखकर कैसे किसी को मित्र मानते हो ? तुम जिसे शत्रु मानते हो उसे भी सहन करो और जिसे मित्र मानते हो उसे भी सहन करो। इस सूत्र से अपने आपको भावित करोमैं सब जीवों को सहन करता हूं, वे सब मुझे सहन करें मेरी सबके प्रति मैत्री है, I किसी के प्रति मेरा वैर नहीं है। तुम सबसे भिन्ना भिन्न हो तब कैसे किसी को नीच मानते हो और कैसे किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only ७ www.jainelibrary.org

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