Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 21
________________ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में को उच्च मानते हो? तुम जिसे नीच मानते हो, वह भी तुम्हारे मन का अहंकार है और जिसे तुम उच्च मानते हो वह भी तुम्हारे मन का अहंकार है । अहंकार को छोड़ यथार्थ को देखो। मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र होता है । यह कर्म का विभाजन है । इस विभाजन के साथ अहंकार को छोड़कर उच्चता और नीचता की रेखाएं निर्मित मत करो, मनुष्य को तोड़ कर मत देखो। व्यक्तित्व और कर्तृत्व के साथ जुड़ी हुई मानवीय एकता को मत भूलो। इस घोष ने भारतीय मानस को आंदोलित कर दिया। अनेकता एकता से पृथक् नहीं है और एकता अनेकता से पृथक् नहीं है। यह सहअस्तित्व का मौलिक आधार है। इसी आधार पर मानवीय एकता संभव हो सकती है। इसी आधार पर भिन्न-भिन्न शासन-प्रणालियां एक साथ चल सकती हैं। अनेकता स्वभाविक है। उसे मिटाया नहीं जा सकता। शांतिपूर्ण जीवन के लिए सहअस्तित्व अनिवार्य है। उसे छोड़ा नहीं जा सकता। दर्शन का धर्म अवतरण बीज की निष्पत्ति पेड़ और पेड़ की निष्पत्ति फल है । दर्शन की निष्पत्ति नैतिकतापूर्ण व्यवहार है । जब हम भीतर से देखते हैं, तब दर्शन से धर्म की और धर्म से नैतिकता की भूमिका पर आते हैं। जब हम बाहर से देखते हैं तब नैतिकता से धर्म की और धर्म से दर्शन की भूमिका पर चले जाते हैं। महावीर का दर्शन भीतर से बाहर की ओर था। उसी आधार पर उन्होंने कहा- जिसका दृष्टिकोण सम्यक् है वही व्रती होगा । अहिंसा का व्रती अपने आश्रितों और कर्मकारों के प्रति क्रूर व्यवहार नहीं करेगा, उनकी आजीविका में विघ्न नहीं डालेगा। सत्य का व्रती विश्वासघात नहीं करेगा। झूठी गवाही नहीं देगा। अचौर्य का व्रती मिलावट नहीं करेगा, असली वस्तु दिखाकर नकली वस्तु नहीं देगा। ब्रह्मचर्य का व्रती विलासपूर्ण सामग्री का उपयोग नहीं करेगा। अपरिग्रह का व्रती संग्रह की सीमा करेगा। व्यक्तिगत जीवन में संयमी रहेगा । जिसके जीवन में नैतिकता नहीं है, उसमें धर्म नहीं हो सकता । नैतिकता-विहीन धर्म की कल्पना महावीर के लिए सर्वथा असम्भव थी। धर्म के आचरण से व्यक्ति के जीवन-व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आता, सामाजिक संबंधों पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता तो कैसे समझा जाए कि धर्म का आचरण करने वाले जीवन में धर्म है ? धर्म शुद्ध आत्मा में उतरता है । आत्मा की शुद्धता होती है, वहां अनैतिकतापूर्ण व्यवहार संभव नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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