Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 53
________________ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में सकता है और उसकी फल देने की शक्ति को मंद और तीव्र किया जा सकता है। कर्म के संक्रमण का सिद्धांत है कि असत् प्रयत्न की उत्कटता के द्वारा पुण्य को पाप में बदला जा सकता है और सत् प्रयत्न की तीव्रता के द्वारा पाप को पुण्य में बदला जा सकता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा फल भोगता है-कर्मवाद के इस एकाधिकार को यदि उदीरण और संक्रमण का सिद्धांत सीमित नहीं करता तो मनुष्य भाग्य के हाथ का खिलौना होता। उसकी स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती। फिर ईश्वर की अधीनता और कर्म की अधीनता में कोई अंतर नहीं होता। किन्तु उदीरण और संक्रमण के सिद्धांत ने मनुष्य को भाग्य के एकाधिकार से मुक्त कर स्वतन्त्रता के दीवट पर पुरुषार्थ के प्रदीप को प्रज्ज्वलित कर दिया। ___ नियति को हम सीमित अर्थ में स्वीकार कर पुरुषार्थ पर प्रतिबन्ध का अनुभव करते हैं । पुरुषार्थ पर नियति का प्रतिबन्ध है, किन्तु इतना नहीं है, जिससे कि पुरुषार्थ की उपयोगिता समाप्त हो जाए। यदि हम नियति को जागतिक नियम (Universal Law) के रूप में स्वीकार करें तो पुरुषार्थ भी एक जागतिक नियम है। इसलिए नियति उसका सीमा-बोध करा सकती है किन्त उसके स्वरूप को विलप्त नहीं कर सकती। विलियम जेम्स ने लिखा है-'संसार में सब कुछ पहले से ही निर्धारित हो तो मनुष्य का पुरुषार्थ व्यर्थ है, क्योंकि पूर्व-निर्धारित अन्यथा नहीं हो सकता।' यदि संसार में अच्छा और बुरा करने की स्वतन्त्रता न हो तो पश्चाताप करने का क्या औचित्य है ? किन्तु जहां सब कुछ पहले से निर्धारित हो तो वहां पश्चाताप करने से रोका भी नहीं जा सकता। जब तक हम मनुष्य की स्वतन्त्रता स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक हम उसे किसी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं ठहरा सकते । अनेकांत दृष्टि हमें इस वास्तविकता पर पहुंचा देती है कि इस विश्व में नियत वहीं है जो शाश्वत है । जो अशाश्वत है, वह नियत नहीं हो सकता । अस्तित्व शाश्वत है। कोई भी पुरुषार्थ उसे अनस्तित्व में नहीं बदल सकता । जो यौगिक है, वह अशाश्वत है, वह पूर्व-निर्धारित नहीं हो सकता। उसे बदलने में ही स्वतन्त्रता और पुरुषार्थ की अर्थवत्ता है। पुरुषार्थ के द्वारा भाग्य को बदला जा सकता है, संसार को अच्छा या बुरा किया जा सकता है। यह पुरुषार्थ की सीमा का कार्य है। ऐसा करने में नियति उसका साथ देती है। अस्तित्व को बनाया-बिगाड़ा नहीं जा सकता। वह पुरुषार्थ की सीमा से परे है। नियति और पुरुषार्थ की इस सीमा का बोध होने पर उन दोनों में विरोध का अनुभव नहीं होता, सापेक्षतापूर्ण सामंजस्य का ही अनुभव होता है। क्रिया चेतन और अचेतन-दोनों का मौलिक गुण है। अचेतन की क्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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