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साधना का मार्ग
और शिथिलता का संकल्प । इस प्रक्रिया से दो-तीन क्षणों में शरीर शिथिल हो जाता है । प्रवृत्ति छूट जाती है और चिन्तन भी छूट जाता है । एक प्रकार की नींद का अनुभव होने लग जाता है । न पूरी नींद और न पूरी जागृति, थोड़ी नींद और थोड़ी जागृति – यह मिश्रित अनुभव होने लग जाता है । इस स्थिति में कम से कम आधा घंटा रहना शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक विकास—दोनों के लिए हितकर है 1 कायोत्सर्ग मृत्यु की उपासना है । जिसे कायोत्सर्ग का अच्छा अभ्यास होता है वह मूर्च्छित अवस्था में नहीं मरता । वह मृत्यु के अन्तिम क्षण तक जागृत रहता है और उसे शरीर छूटने के अन्तिम क्षण का बोध होता है । कहा जाता है कि मृत्यु के क्षण में कष्ट होता है । कष्ट मृत्यु से नहीं होता । वह कल्पना के कारण होता है । मृत्यु में भय की कल्पना है । भय के कारण स्नायुओं में सिकुड़न होती है। स्नायु की सिकुड़न होती है । स्नायु की सिकुड़न दर्द पैदा करती है । साधारण पीड़ा भी स्नायुविक सुकुड़न के कारण तीव्र बन जाती है । हमारे शरीर में भय न हो, स्नायुओं में सिकुड़न न हो, इस भावना की पूर्ति स्नायु की उपासना से ही हो सकती है /
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३. स्थूल कर्म शरीर का प्रकम्पन
जिसे हम देख रहे हैं, वह स्थूल शरीर है । उनमें एक सूक्ष्म शरीर है। उसका नाम तैजस है । वह स्थूल शरीर को सक्रिय बनाता है, संचालित करता है । यह प्राण-शक्ति का स्रोत है। वैज्ञानिकों ने ऐसे कैमरे निर्मित किए हैं जिनके द्वारा आभा-मंडल के फोटो लिए जा सकते हैं। पुराने जमाने की परिभाषा थी— जिसमें श्वास चले वह जीवित और जिसमें श्वास बन्द हो जाए वह मृत । आदमी जब मरने को होता है तब उसकी नाक पर रुई का फोहा लगाते हैं, यह पता लगाने के लिए कि वह जी रहा है। या नहीं जी रहा है। यदि रुई का फोहा हिलता है तो श्वास चल रहा है, आदमी जी रहा है । यदि वह नहीं हिलता है तो मान लिया जाता है कि वह मर गया । यह बहुत पुरानी बात हो गई । जीवन की नई परिभाषा यह है - श्वास चाहे चले या न चले, हृदय की धड़कन हो या न हो, उसकी आभा का वर्तुल टूट गया तो आदमी मर गया । बहुत बार ऐसा होता है कि हृदय की धड़कन रुक जाने के कुछ दिनों बाद भी आदमी फिर जी उठता है । बहुत लोग श्मशान - यात्रा कर फिर घर लौट आते हैं । हृदय की धड़कन बन्द हो गई श्वास की गति बन्द हो गई, किन्तु आभा का वर्तुल नहीं टूटा तो वे फिर जी उठे और चिता से उठकर घर आ गए। यह आभा- वलय तैजस शरीर का एक प्रतिबिम्ब है। यह जीवन का सूत्रधार हैं। यह सम्पूर्ण स्थूल शरीर के भीतर और बाहर — दोनों ओर व्याप्त है ।
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