Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 90
________________ सत्य की खोज : विसंवादिता का अवरोध सत्यांश के द्वारा ही सत्य को समझने का प्रयत्न करें, इससे बड़ा असत्य कोई नहीं हो सकता । सत्यांश के द्वारा सत्य को नहीं समझा जा सकता। उसके द्वारा सत्य की जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है किन्तु सत्य को अपनी साधना के द्वारा ही उपलब्ध किया जा सकता है । अनेकांत ने उस साधना का पथ प्रस्तुत किया है। वह है ऋजुता, अनाग्रह । महावीर ने कहा---- सत्य उसे उपलब्ध होता जो ऋजु है । वह जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करता है; यथार्थ को अपने पूर्वाग्रह के सांचे में ढालने का प्रयत्न नहीं करता; वस्तु-सत्य के दर्पण को अपनी रुचि और संस्कार के फ्रेम में मढ़ने का प्रयत्न नहीं करता, वस्तु- सत्य के विरोधी विसंगत प्रतीत होने वाले पर्यायों में अपने तर्क बल से सामंजस्य और संगति स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करता। यह ऋजुता की साधना झुकाव - शून्यता की साधना है। विचार - शून्यता की साधना है । ऋजु व्यक्ति न महावीर के प्रति झुकाव रखता है और न किसी दूसरे के प्रति । उसका मन और मस्तिष्क खाली होता है, शून्य होता है। महावीर ने कहा वह सत्य है और लाओत्से ने कहा वह असत्य है, ऐसा भाव उसमें नहीं होता। वह महावीर के सत्यांश को महावीर के देश, काल, अपेक्षा और परिस्थितियों के संदर्भ में समझने का प्रयत्न करता है | लाओत्से के सत्य को उनके देश, काल, अपेक्षा और परिस्थितियों के संदर्भ में समझने का प्रयत्न करता है और सत्य की उपलब्धि के लिए अपनी साधना आगे बढ़ाता है । सत्य की खोज के मार्ग में जितने प्रश्न, जितनी समस्याएं और जितनी उलझनें हैं वे सब एकांतवादी लोगों ने उत्पन्न की हैं। एक एकांतवादी व्यक्ति 'क' के सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर 'ख' के सत्यांश को असत्यांश बतलाता है तो दूसरा व्यक्ति 'ख' के सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर 'क' के सत्यांश को असत्यांश बतलाता है । इस प्रकार वे एक-दूसरे के सत्यांश को असत्यांश बतलाकर सत्य की खोज में प्रश्न पैदा करते हैं । वे यथार्थ को यथार्थ रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं । वे वचन-प्रामाण्य या शास्त्र - प्रामाण्य से ही सत्य को उपलब्ध करना चाहते हैं । उसके लिए ऋजुता या विचार-शून्यता की साधना करना नहीं चाहते। ऐसे ही लोगों ने सत्यांशों में विरोधाभास दिखाकर सत्य की अनेकरूपता और सत्यदर्शी तपस्वियों की परस्पर विसंवादिता के प्रश्न को उजागर किया है I Jain Education International ७७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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