Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 95
________________ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में परिणामि नित्य आंधी चल रही है। उसमें जितनी शक्ति आज है, उतनी ही कल होगी, यह नहीं कहा जा सकता। जो कल थी, उसका आज होना जरूरी नहीं है और जो आज है उसका आने वाले कल में होना जरूरी नहीं है । इस दुनिया में एकरूपता के लिए कोई अवकाश नहीं है । जिसका अस्तित्व है, वह बहुरूप है। जो बाल आज सफेद हैं, वे कभी काले रहे हैं । जो आज काले हैं, वे कभी सफेद होने वाले हैं। वे एकरूप नहीं रह सकते । केवल बाल ही क्या, दुनिया की कोई भी वस्तु एकरूप नहीं रह सकती। जैन दर्शन ने अनेकरूपता के कारणों पर गहराई से विचार किया है, अंतर्बोध से उसका दर्शन किया है । विचार और दर्शन के बाद एक सिद्धांत की स्थापना की। उसका नाम है 'परिणामि-नित्यत्ववाद' । इस सिद्धांत के अनुसार विश्व का कोई भी तत्त्व सर्वथा नित्य नहीं है और कोई भी तत्त्व सर्वथा अनित्य नहीं है। प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य—इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्विति है । तत्त्व का अस्तित्व ध्रुव है, इसलिए वह नित्य है । ध्रुव परिणमन-शून्य नहीं होता और परिणमन ध्रुव-शून्य नहीं होता। इसलिए वह अनित्य भी है। वह एकरूप में उत्पन्न होता है और एक अवधि के पश्चात् उस रूप से च्युत होकर दूसरे रूप में बदल जाता है। इस अवस्था में प्रत्येक तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य—इन तीन धर्मों का समवाय है। उत्पाद और व्यय-ये दोनों परिणमन के आधार बनते हैं और ध्रौव्य-उनका अन्वयी-सूत्र है । वह उत्पाद की स्थिति में भी रहता है और व्यय की स्थिति में भी रहता है । वह दोनों को अपने साथ जोड़े हुए है। जो रूप उत्पन्न हो रहा है, वह पहली बार ही नहीं हो रहा है। और जो नष्ट हो रहा है, वह भी पहली बार ही नहीं हो रहा है । उससे पहले वह अनगिनत बार उत्पन्न हो चुका है और नष्ट हो चुका है। उसके उत्पन्न होने पर अस्तित्व का सृजन नहीं हुआ और नष्ट होने पर उसका विनाश नहीं हुआ। ध्रौव्य उत्पाद और व्यय को एक क्रम देता है किन्तु अस्तित्व की मौलिकता में कोई अन्तर नहीं आने देता। अस्तित्व की मौलिकता समाप्त नहीं होती। इस बिन्दु को पकड़ने वाले 'कूटस्थ नित्य' के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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