Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 120
________________ अद्वत आर द्वत १०७ ____ जैन दर्शन ने विरोधी युगलों का सह-अस्तित्व स्वीकार किया इसलिए वह सर्वग्राही दर्शन हो गया। वह किसी भी विचारधारा को असत्य की दृष्टि से नहीं देखता किन्तु सापेक्ष-सत्य की दृष्टि से देखता है । जितने विचार हैं, वे सब पर्याय हैं और पर्याय निरपेक्ष-सत्य नहीं हो सकता। निरपेक्ष-सत्य तो मूल द्रव्य हो सकता है। जैन-दर्शन को जड़वादी विचार अमान्य नहीं है किन्तु साथ-साथ आत्मवादी विचार भी उतना ही मान्य है जितना कि जड़वादी विचार । दोनों विचारों का योग होने पर ही जैन दर्शन यथार्थ बनता है। ___ मैं एक बार आचार्य कुन्दकुन्द का 'समयसार' पढ़ रहा था। नैश्चयिक नय की जलराशि में डुबकियां लगाते-लगाते मुझे ऐसा अभ्यास हुआ कि कहीं मैं अद्वैतवादी तो नहीं हो गया है। सचमुच मेरा मानस ऐसा बन गया कि द्वैत की अपेक्षा अद्वैत का सिद्धांत अधिक गम्भीर है। मेरी द्वैत की दृष्टि समाप्त हो गई। हम द्वैत की दिशा से चलते हैं और चलते-चलते ऐसे स्थान पर पहुंचते हैं जहां केवल सत्ता है। सत्ता में कोई भेद नहीं होता। विभक्त होता है केवल पर्याय । मैं दर्शन से काम लेता रहा तब तक मुझे अद्वैत का अनुभव होता रहा । दर्शन अनाकार होता है । वह द्रव्य को देखता है, इसलिए उसके सामने कोई आकार नहीं होता। केवल सामान्य होता है, कोई विशेष नहीं होता। मैंने जब ज्ञान से काम लेना शुरू किया, तब मेरे सामने पर्याय आ गये। जैसे ही मैंने पर्यायों को जानना प्रारम्भ किया, मैं फिर द्वैतवादी हो गया। प्रत्येक पर्याय का एक निश्चित आकार होता है और ज्ञान उस आकार को जानता है। हम जब-जब अनाकार को देखते हैं तब-तब अस्तित्ववादी या द्वैतवादी होते हैं। पर्याय द्रव्य में विलीन हो जाते हैं और द्रव्य अस्तित्व में विलीन हो जाते हैं। शेष बचता है कोरा अस्तित्व । उसमें न चेतन और अचेतन का भेद होता है, न मूर्त और अमूर्त का भेद होता है। कोई भेद नहीं होता, कोई आकार नहीं होता, केवल सत्ता शेष रह जाती है । अनेकान्त की भाषा में यह संग्रह नय' का सत्य है । अनेकान्त मर्यादा में केवल एक नय ही सत्य नहीं होता। शेष सब नयों की सत्यता स्वीकार करने पर ही कोई नय सत्य होता है। संग्रह नय सत्य है, अद्वैत सत्य है, किन्तु व्यवहार नय या द्वैत भी उतना ही सत्य है। अस्तित्व द्रव्य और पर्याय-इन दो आकारों में विभक्त होता है । द्रव्य पांच अस्तिकायों में विभक्त होता है । पर्याय अनन्त रूपों में विभक्त होता है। यह द्वैत उतना ही सत्य होता है, जितना कि अद्वैत । इस स्वीकृति के बाद हम जैन दर्शन को न अद्वैतवादी कह सकते हैं और न द्वैतवादी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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