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अद्वैत और द्वैत
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व्यवहार सत्य और एक परमार्थ सत्य । ब्रह्म पारमार्थिक सत्य है और दृश्य जगत् व्यवहार सत्य है।
बौद्ध दर्शन ने भी संवृति सत्य और पारमार्थिक सत्य-इन दो दृष्टियों से विश्व की व्याख्या की। उसके अनुसार चेतन और अचेतन—दोनों क्षणजीवी हैं। यह पारमार्थिक सत्य है। उनकी त्रैकालिक एकता की प्रतीति सांवृतिक सत्य है। इन दोनों दृष्टियों ने सम्भवत: वेदान्त के दृष्टिकोण को प्रभावित किया। आचार्य शंकर के गुरु 'गौडपाद' बौद्ध धर्म के प्रकाण्ड विद्वान् थे। हो सकता है कि गौडपाद का शंकर पर प्रभाव पड़ा हो और उन्होंने प्रकारान्तर से उपनिषदों के आधार पर मायावाद की व्याख्या की हो।
जैन दर्शन ने विश्व की व्याख्या अनेकांत दृष्टि से की। अनेकान्त के अनुसार द्रव्य में अनन्त धर्म हैं । जितने धर्म हैं उतने ही उन्हें जानने के ‘नय' हैं और जितने 'नय' हैं उतने ही उनके प्रतिपादन के प्रकार हैं । नयों का समाहार करने पर मूल नय दो होते हैं—नैश्चयिक और व्यावहारिक। नैश्चयिक नय की दृष्टि से चेतन और अचेतन—दोनों शाश्वत और वास्तविक सत्य हैं । व्यावहारिक नय की दृष्टि से चेतन
और अचेतन-दोनों के पर्याय अशाश्वत, किन्तु वास्तविक सत्य हैं। नैश्चयिक नय द्रव्य की व्याख्या करता है और पर्यायार्थिक नय उसमें होने वाले विविध परिणमनों की व्याख्या करता है। व्यावहारिक नय की दृष्टि से चीनी मीठी है, सफेद है किन्तु नैश्चयिक नय की दृष्टि से उसमें सब वर्ण, सब रस, सब गंध और सब स्पर्श होते हैं । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि चेतन और अचेतन—दोनों निरपेक्ष सत्य हैं तथा उनमें होने वाले परिवर्तन सापेक्ष सत्य हैं । निरपेक्ष और सापेक्ष—दोनों सत्यों की समन्विति ही वास्तविक सत्य है। विश्व-व्यवस्था और सह-अस्तित्व
. नीम की एक टहनी में अनन्त धर्म है। वह मूल द्रव्य नहीं है । वह द्रव्य की एक पर्याय है। मूल द्रव्य पुद्गल है और मूल द्रव्य जीव है । जीव और पुद्गल दोनों का योग मिला और नीम उत्पन्न हो गया, टहनी निर्मित हो गई। उस टहनी में जीव
और पुद्गल दोनों साथ रह रहे हैं । जीव चेतन और पुद्गल अचेतन और दोनों परस्पर विरोधी । वह द्रव्य ही नहीं होता जिसमें विरोधी धर्मों के अनन्त युगल न हों। एक परमाणु में भी अनन्त विरोधी युगल होते हैं। इसलिए जैन दर्शन का प्रत्येक द्रव्य सत् भी है और असत् भी है; नित्य भी है और अनित्य भी है। शकंराचार्य ने
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