Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 109
________________ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में रहा है। अब उसे हटाना होगा। ___'परमाणुवाद का विकास वैशेषिक दर्शन से हुआ है, फिर जैन दर्शन ने उसे अपनाया है। चेतन और अचेतन-इस द्वैत का प्रतिपादन सांख्य दर्शन ने किया है। फिर जैन दर्शन ने उसे अपनाया है।' यह सब ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है कि मानो जैन दर्शन का अपना कोई मौलिक रूप है ही नहीं। वह सारा का सारा ऋण लेकर अपना काम चला रहा है । सत्य तो यह है कि परमाणु और पुद्गल के बारे में जितना गम्भीर चिन्तन जैन आचार्यों ने किया है, उतना किसी भी दर्शन के आचार्यों ने नहीं किया। सांख्य दर्शन की प्रवृत्ति और उसका विस्तार एक पुद्गलास्तिकाय की परिधि में आ जाता है । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व उससे सर्वथा स्वतन्त्र है । जैन दर्शन की प्राचीनता की अस्वीकृति उसके आधारभूत आगम-सूत्रों के अध्ययन की परम्परा के अभाव और जैन विद्वानों की उपेक्षावृत्ति ने ऐसी स्थिति का निर्माण किया है कि जैन दर्शन का देय उसी के लिए ऋण के रूप में समझा जा रहा है। - भगवान् महावीर ने वस्तु-मीमांसा और मूल्य-मीमांसा-दोनों दृष्टियों से तत्त्व का वर्गीकरण किया। वस्तु-मीमांसा की दृष्टि से उन्होंने पंचास्तिकाय का प्रतिपादन किया और मूल्य-मीमांसा की दृष्टि से उन्होंने नौ तत्त्वों का निरूपण किया। ___ चार्वाक का तात्त्विक वर्गीकरण केवल वस्तु-मीमांसा की दृष्टि से है। उसके अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु–ये चार तत्त्व हैं। उनसे निर्मित यह जगत् भौतिक और दृश्य है । अदृश्य सत्ता का कोई अस्तित्व नहीं है। न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम का तात्त्विक वर्गीकरण एक प्रकार से प्रमाण-मीमांसा है। वैशेषिक दर्शन का तात्त्विक वर्गीकरण नैयायिक दर्शन की अपेक्षा वास्तविक है। उसमें गुण, कर्म, सामान्य और विशेष की व्यवस्थित व्याख्या मिलती है। जैन दर्शन की दृष्टि से इसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। ये द्रव्य के ही धर्म हैं। सांख्य दर्शन का तात्त्विक वर्गीकरण सृष्टि-क्रम का प्रतिपादन करता है। इनके पचीस तत्त्वों में मौलिक तत्त्व दो हैं-प्रकृति और पुरुष । शेष तेईस तत्त्व प्रकृति के विकार हैं। उनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। पंचास्तिकाय के वर्गीकरण में पांचों द्रव्यों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। कोई भी द्रव्य किसी का गुण या अवान्तर विभाग नहीं है। गति, स्थिति, अवगाह, चैतन्य तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये विशिष्ट गुण हैं। इन्हीं के द्वारा उनकी स्वतंत्र सत्ता है । इस वर्गीकरण में न प्रमाण-मीमांसा है, न गुणों की स्वतन्त्र सत्ता की स्वीकृति और न सृष्टि का क्रम । इसमें दृश्य और अदृश्य, भौतिक और अभौतिक अस्तित्वों का प्रतिपादन है। इस दृष्टि से यह वर्गीकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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