Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 97
________________ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में मैं उसके अनेक पर्यायों में से एक पर्याय को जानता हूं और उसके माध्यम से यह जानता हूं कि यह मनुष्य है। जब आंख से उसे देखता हूं तो उसकी आकृति और वर्ण-इन दो पर्यायों के आधार पर उसे मनुष्य कहता हूं । कान से उसका शब्द सुनता हूं, तब उसे शब्द-पर्याय के आधार पर मनुष्य कहता हूं । उसकी समग्रता को मैं भी नहीं पकड़ पाता। आम को कभी मैं रूप-पर्याय से जानता हं, कभी गंध-पर्याय से और कभी रस-पर्याय से। किन्तु सब पर्यायों से एक साथ जानने का मेरे पास कोई साधन नहीं है। आंख जब रूप को देखती है तो गंध और रस आदि पर्याय नीचे चले जाते हैं। गंध का पर्याय जब जाना जाता है तब रूप का पर्याय नीचे चला जाता है। इस समग्रता के सन्दर्भ में मैं कहता हूं कि मैं द्रव्य को नहीं देखता हूं, केवल पर्यायों को देखता हूं और पर्याय के आधार पर द्रव्य का बोध करता हूं। हमारा पयाय का जगत् बहत लम्बा-चौड़ा है और द्रव्य का जगत् बहुत छोटा है । एक द्रव्य और अनन्त पर्याय । प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के वलय से घिरा हुआ है। प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के पटल में छिपा हुआ है। उसका बोध कर द्रव्य को देखना इन्द्रिय ज्ञान के लिए सम्भव नहीं है। परिणमन स्वभाव से भी होता है और प्रयोग से भी। स्वाभाविक परिणमन अस्तित्व की आन्तरिक व्यवस्था से होता है। प्रायोगिक परिणमन दूसरे के निमित्त से घटित होता है। निमित्त मिलने पर ही परिणमन होता है, ऐसी बात नहीं है। परिणमन का क्रम निरन्तर चालू रहता है। काल उसका मुख्य हेतु है। वह (काल) प्रत्येक अस्तित्व का एक आयाम है। वह परिणमन का आंतरिक हेतु है इसलिए प्रत्येक अस्तित्व में व्याप्त होकर वह अस्तित्व को परिणमनशील रखता है । स्वाभाविक परिणमन सूक्ष्म होता है । वह इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आता, इसलिए अस्तित्व में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों की इन्द्रिय ज्ञान के स्तर पर व्याख्या नहीं की जा सकती। जीव और पुद्गल के पारस्परिक निमित्तों से जो स्थूल परिवर्तन घटित होता है, हम उस परिवर्तन को देखते हैं और उसके कार्य-कारण की व्याख्या करते हैं। कोई आदमी बीमारी से मरता है, कोई चोट से, कोई आघात से और कोई दूसरे के द्वारा मारने पर मरता है। बीमारी नहीं, चोट नहीं, आघात नहीं और कोई मारने वाला भी नहीं, फिर भी वह मर जाता है। जो जन्मा है, उसका मरना निश्चित है। मृत्यु एक परिवर्तन है। जीवन में उसकी आंतरिक व्यवस्था निहित है। मनुष्य जन्म के पहले क्षण में ही मरने लग जाता है। जो पहले क्षण में नहीं मरता, वह फिर कभी नहीं मर सकता। जो एक क्षण अमर रह जाए फिर उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। बाहरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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