Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 106
________________ तत्त्ववाद पुद्गलास्तिकाय । वे कहते हैं कि चार अस्तिकाय अजीव हैं, एक जीवास्तिकाय जीव है। चार अस्तिकाय अमूर्त हैं, एक पुद्गलास्तिकाय मूर्त है यह कैसे हो सकता है ? उस समय भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम राजगृह से गुणशिलक चैत्य की ओर जा रहे थे। उन परिव्राजकों ने गौतम को देखा और वे परस्पर बोले—'देखो, वे गौतम जा रहे हैं। महावीर का इनसे अधिक अधिकृत व्यक्ति कौन मिलेगा? अच्छा है हम उनके पास चलें और अपनी जिज्ञासा को उनके सामने रखें।' उस समय एक संन्यासी दूसरे संन्यासी के पास मुक्तभाव से चला जाता, बुला लेता, अपने स्थान में आमंत्रित कर लेता—इसमें कोई कठिनाई नहीं थी। मुक्तभाव और मुक्त वातावरण था। इसलिए परिव्राजकों को गौतम के पास जाने में कोई कठिनाई नहीं हई। वे सब उठे और गौतम के पास पहंच गए। उन्होंने कहा-'तम्हारे धर्माचार्य ने पंचास्तिकाय का प्रतिपादन किया है। क्या यह युक्ति-संगत है?' गौतम ने उनसे कहा-'आयुष्मन् परिव्राजको ! हम अस्ति को नास्ति नहीं कहते और नास्ति को अस्ति नहीं कहते । हम सम्पूर्ण अस्तिभाव को अस्ति कहते हैं और सम्पूर्ण नास्तिभाव को नास्ति कहते हैं। तुम स्वयं इस पर मनन करो और इसे ध्यान से देखो।' गौतम परिव्राजकों को संक्षिप्त उत्तर देकर आगे चले गए। कालोदायी ने सोचा-पंचास्तिकाय के विषय में हमने मदुक को पूछा, फिर गौतम को पूछा । उन्होंने अपने-अपने ढंग से उत्तर भी दिए । पर जब महावीर स्वयं यहां उपस्थित हैं तब क्यों न हम महावीर से ही उस विषय में पूछे ? कालोदायी के पैर भी महावीर की दिशा में बढ़ गए। उस समय भगवान् महाकथा कर रहे थे । कालोदायी वहां पहुंचा। भगवान ने उसे देखकर कहा-कालोदायी ! तुम लोग गोष्ठी कर रहे थे और उस गोष्ठी में मेरे द्वारा प्रतिपादित पंचास्तिकाय के विषय में चर्चा कर रहे थे। क्यों, यह ठीक है न?' 'हां, भंते ! वैसा ही है जैसा कह रहे हैं।' 'कालोदायी ! तुम्हारी जिज्ञासा है कि मैं पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करता हूं, वह कैसे? कालोदायी ! तुम्हारी बताओ, पंचास्तिकाय है या नहीं? यह प्रश्न किसको होता है, चेतन को या अचेतन को? आत्मा को या अनात्मा को ?' 'भंते ! आत्मा को होता है।' ‘कालोदायी ! जिसे तुम आत्मा कहते हो उसे मैं जीवास्तिकाय कहता हूं । जीव चेतनामय प्रदेशों का अविभक्त काय है, इसलिए मैं जीवास्तिकाय कहता हूं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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