Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 105
________________ ९२ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में जान लेते हैं कि हवा चल रही है।' 'फूलों की भीनी सुगन्ध आ रही है।' 'हां, आ रही है।' 'सुगन्ध के परमाणु हमारी नासा में प्रविष्ट हो रहे हैं ?' 'हां, हो रहे हैं।' 'क्या आप नासा में प्रविष्ट सुगन्ध के परमाणुओं का रूप देख रहे हैं ?' 'नहीं !' 'आयुष्मन् ! अरणि की लकड़ी में अग्नि है?' 'हां, है।' 'क्या आप अरणि में छिपी हुई अग्नि का रूप देख रहे हैं?' 'नहीं।' 'आयुष्मन् ! क्या समुद्र के उस पार रूप है ?' 'हां, हैं।' 'क्या आप समुद्र के पारवर्ती रूपों को देख रहे हैं ?' 'नहीं।' 'आयुष्मन् ! मैं या आप, कोई भी परोक्षदर्शी सूक्ष्म, व्यवहित और दूरवर्ती वस्तु को नहीं जानता, नहीं देखता किन्तु वह सब नहीं होता, ऐसा नहीं है। हमारे ज्ञान की अपूर्णता द्रव्य के अस्तित्व को मिटा नहीं सकती। यदि मैं पांचों अस्तिकायों को साक्षात् नहीं जानता-देखता, इसका अर्थ यह नहीं होता है कि वे नहीं हैं। भगवान् महावीर ने प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा उनका साक्षात् किया है, उन्हें जाना-देखा है, इसलिए वे उनका प्रतिपादन कर रहे हैं।' इस प्रसंग से जाना जा सकता है कि पंचास्तिकाय का वर्गीकरण अन्य-तीर्थिकों के लिए कुतुहल का विषय था। इस विषय में वे जानते नहीं थे। उन्होंने इस विषय में कभी सुना-पढ़ा नहीं था। यह उनके लिए सर्वथा नया विषय था। मद्दुक के तर्कपूर्ण उत्तर से भी वे अस्तिकाय का मर्म समझ नहीं पाए । कुछ दिन बाद, फिर परिव्राजकों की गोष्ठी जुड़ी। उसमें कालदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी आदि अनेक परिव्राजक सम्मिलित थे। उनमें फिर महावीर के पंचास्तिकाय पर चर्चा चली । कालोदायी ने कहा-'श्रमण महावीर पांच अस्तिकायों का प्रतिपादन करते हैं— धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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