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प्रत्ययवाद और वस्तुवाद
हैं। द्रव्य में दो प्रकार के गुण समन्वित होते हैं—सामान्य और विशेष । ये एक-दूसरे से कभी पृथक् नहीं होते। सामान्यशून्य विशेष और विशेषशून्य सामान्य कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । सामान्य गुण द्रव्य के अस्तित्व को बनाए रखता है किन्तु उसकी विशेषता का अपहरण नहीं करता । विशेष गुण द्रव्य की स्वतन्त्रता को बनाए रखता है किन्तु उसके अस्तित्व में कोई भी बाधा उपस्थित नहीं करता।
जब हम सामान्य दर्शन की धारा में होते हैं तब परम अस्तित्व को देखते हैं और जब हम विशेष दर्शन की धारा में होते हैं तब हम अपर अस्तित्व को देखते हैं। यह परम अस्तित्व और परम अस्तित्व का विभाजन नहीं किन्तु हमारे दर्शन का विभाजन है। हम एक साथ दोनों को नहीं देख सकते इसलिए जगत् को कभी सामान्य के कोण से देखते हैं और कभी विशेष के कोण से । सामान्य के कोण से देखने पर परम अस्तित्व का सत्यांश उपलब्ध होता है और विशेष के कोण से देखने पर अपर अस्तित्व का सत्यांश उपलब्ध होता है । इस सापेक्ष व्याख्या में न प्रत्ययवाद वस्तुवाद का विरोधी है और न वस्तुवाद प्रत्ययवाद का। प्रत्ययवाद का. ध्येय है-केवल चैतन्य की वास्तविक सत्ता स्थापित करना और वस्तुवाद का ध्येय है-चैतन्य से वस्त की स्वतंत्रता स्थापित करना।
ज्ञेय ज्ञाता से स्वतन्त्र है। यदि वह ज्ञाता से स्वतन्त्र न हो तो ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध नहीं हो सकता। सम्बन्ध दो में स्थापित होता है। एक में कोई सम्बन्ध नहीं होता। ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता के ज्ञान पर निर्भर नहीं है। ज्ञाता के जानने के क्षणों में वह निर्मित नहीं होता और ज्ञाता के न जानने के क्षणों में वह विलुप्त नहीं होता । प्रत्ययवादियों का तर्क है-ज्ञेय स्वतन्त्र हो तो उसका अनुभव सबको समान. होना चाहिए, किन्तु वैसा नहीं होता। एक ही वस्तु को अनेक लोग अनेक रूपों में जानते-देखते हैं। इस भेद का कारण हमारे मन में है। यह तर्क बहुत गम्भीर नहीं है। हमारा ज्ञान सापेक्ष होता है । इसलिए एक वस्तु को अनेक लोग अनेक रूपों में जानते-देखते हैं । देश, काल, वातावरण, रुचि, पूर्व-मान्यता, झुकाव, मन की ग्रहणशक्ति का तारतम्य आदि मिलकर सापेक्षता का निर्माण करते हैं। इस सापेक्षदृष्टि से वस्तुवादियों का यह सत्यांश समर्थित होता है कि वस्तु की सत्ता हमारे मन में नहीं है। बट्टैण्ड रसेल की यह उक्ति महत्त्वपूर्ण है कि 'वृक्ष हमारे मन में नहीं है । वृक्ष का विचार मन में है, किन्तु वृक्ष नहीं।'
वस्तु की सत्ता मन से स्वतन्त्र होने पर ही उसमें ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध हो सकता है। एफ. सी. एस. शिलर ने प्रत्ययवादी होते हए भी इसे स्वीकृति दी है।
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