Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 85
________________ ७२ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में पूर्व के उद्यान में गये। फिर वे पश्चिम और उत्तर के उद्यान में गए । उनका मन दक्षिण के उद्यान में जाने के लिए छटपटा रहा था। मन में आया-वहां जाना बड़ा खतरनाक है। फिर सोचा देखें तो सही क्या खतरा है? देखे बिना कैसे पता चलेगा? वे घूमते रहे और साथ-साथ मन भी घूमता रहा। वे घूमते हैं पूर्व के उद्यान में और उनका मन घूमता है दक्षिण के उद्यान में । वे घूमते हैं पश्चिम के उद्यान में और उनका मन दौड़ रहा है दक्षिण के उद्यान में । वे घूमते हैं उत्तर के उद्यान में और उनका मन दौड़ रहा है दक्षिण के उद्यान में। यह बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य है कि निषेध करने का अर्थ है-आकर्षण पैदा करना। जब-जब हम मन को रोकने की बात सोचते हैं तब-तब उसके दौड़ने की बात सोचते हैं । हम नहीं चाहते कि वह दौड़े, किन्तु जब रोकना चाहते हैं तब उसकी दौड़ कैसे बन्द हो? हम जिन स्थानों में उसे नहीं जाने देना चाहते वहां वह जरूर जाना चाहेगा। एक साधक ध्यान का अभ्यास कर रहा था। गुरु उसे ध्यान का अभ्यास करा रहे थे। एक दिन गुरु ने कहा-'तुम एकान्त में जाकर ध्यान करो । पूर्ण एकाग्रता से ध्यान करो। पर एक बात का ध्यान रखना, तुम्हारा अभ्यास तभी सफल होगा जब तुम बन्दर को याद नहीं करोगे। यदि तुम बन्दर को याद करोगे तो तुम्हारा अभ्यास-क्रम टूट जायेगा।' वह गुरु को प्रणाम कर एकान्त में गया। ध्यान करने बैठा । उसे और कोई स्मृति नहीं आई। उसका मन बन्दर की स्मृति में उलझ गया। गुरु ने उसके मन में एक जहरीला कीटाणु छोड़ दिया। वह बेचारा बार-बार उसे भूलने का प्रयत्न करता है। किन्तु जब-जब वह उसे भूलने का प्रयत्न करता है, तब-तब बन्दर उसकी आंखों के सामने आ जाता है। वह निषेध की पकड़ में आ गया। उसका अभ्यास सफल नहीं हो सका । गुरु ने दूसरे दिन कहा—'तुम एकान्त में चले जाओ। एक घंटे का समय है दोनों नथुनों के नीचे आते-जाते प्राणवायु को देखते रहो ।' साधक ने वैसा ही किया। दस मिनट बीते होंगे कि मन शान्त हो गया। स्मृति, चिन्तन और कल्पना-सबके दरवाजे बन्द हो गए। आधा घंटा बीता कि देश-काल का भान भी समाप्त हो गया। वह समाधि में कई घंटों तक बैठा रहा। तीन घंटे बाद उसकी समाधि टूटी। गुरु ने नहीं कहा कि मन को रोकना है । शिष्य ने भी नहीं सोचा कि मन को रोकना है। किन्तु मन रुक गया। वह रुकता है, उसे रोका नहीं जा सकता। हम श्वास को मन्द करें, मन अपने आप रुक जाएगा। हम श्वास को देखें, वह अपने आप शान्त हो जाएगा। हम चंचलता के प्रवाह को रोक देते हैं तब चंचलता अपने आप रुक जाती है । जलाशय में पानी है तब लहर उठती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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