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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
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प्रतिबंधित नहीं होती इसलिए पूर्ण स्वतन्त्र होती है । द्रव्य में बाह्य निमित्तों से अस्वाभाविक क्रिया भी होती है । वह अनेक योगों से निष्पन्न होने के कारण यौगिक होती है । यौगिक क्रिया में काल, स्वभाव, नियति, भाग्य और पुरुषार्थ - इन सबका योग होता है- किसी का कम किसी का अधिक। जिसमें काल, स्वभाव, नियति या भाग्य का योग अधिक होता है उसमें मनुष्य विचार में स्वतन्त्र होते हुए भी कार्य करने में परतन्त्र होता है । जिसमें पुरुषार्थ का योग अधिक होता है उसमें मनुष्य काल आदि योगों से परतन्त्र होते हुए भी कार्य करने में स्वतन्त्र होता है। इस प्रकार मनुष्य की कार्य करने की स्वतन्त्रता सापेक्ष ही होती है; निरपेक्ष, निरन्तर और निर्बाध नहीं होती । यदि वह निरपेक्ष होती तो मनुष्य इस संसार को सुदूर अतीत में ही अपने इच्छानुसार बदल देता और यदि वह कार्य करने में स्वतंत्र होता ही नहीं तो वह संसार को कुछ भी नहीं बदल पाता। यह सच है कि उसने संसार को बदला है और यह भी सच है कि वह संसार को अपनी इच्छानुसार एक चुटकी में नहीं बदल पाया है, धरती पर निर्बाध सुख-सृष्टि नहीं कर पाया है। इन दोनों वास्तविकताओं में मनुष्य के पुरुषार्थ की सफलता और विफलता, क्षमता और अक्षमता के स्पष्ट प्रतिबिम्ब हैं ।
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मनुष्य की कार्यजा शक्ति यदि काल, स्वभाव आदि में से किसी एक ही तत्त्व द्वारा संचालित होती तो काल, स्वभाव आदि में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती और वे एक-दूसरे को समाप्त करने में लग जाते, किन्तु जागतिक द्रव्यों और नियमों में विरोध और अविरोध का सामंजस्यपूर्ण सन्तुलन है । इसलिए वे कार्य की निष्पत्ति में अपना-अपना अपेक्षित योग देते हैं । सापेक्षवाद की दृष्टि से किसी भी तत्त्व को प्राथमिकता या मुख्यता नहीं दी जा सकती । अपने-अपने स्थान पर सब प्राथमिक और मुख्य हैं । काल का कार्य स्वभाव नहीं कर सकता और स्वभाव का कार्य काल नहीं कर सकता । भाग्य का कार्य पुरुषार्थ नहीं कर सकता और पुरुषार्थ का कार्य भाग्य नहीं कर सकता । फिर भी कर्तृत्व के क्षेत्र में पुरुषार्थ अग्रणी है । पुरुषार्थ से काल के योग को पृथक् नहीं किया जा सकता, किन्तु काल की अवधि में परिवर्तन किया जा सकता है । पुरुषार्थ से भाग्य के योग को पृथक् नहीं किया जा सकता, किन्तु भाग्य में परिवर्तन किया जा सकता है। इन सत्यों को इतिहास और दर्शन की कसौटी पर कसा जा सकता है। जैसे-जैसे मनुष्य के ज्ञान का विकास होता है, वैसे-वैसे पुरुषार्थ की क्षमता बढ़ती है । सभ्यता के आदिम युग में मनुष्य का ज्ञान अल्प विकसित था । उसके उपकरण भी अविकसित थे, फलतः पुरुषार्थ की क्षमता भी कम थी । प्रस्तरयुग की तुलना में अणुयुग के मनुष्य का ज्ञान बहुत विकसित है
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