Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ १४ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में 'क्या यह ईश्वरीय नहीं है ? 'यह ईश्वरीय होता तो भारत में ही क्यों होता ? क्या ईश्वर भारत की सीमा में प्रतिबद्ध है ? ' 'इसका आधार क्या है ?" 'वैदिक ऋषियों ने सामाजिक संगठन के लिए चार वर्णों की व्यवस्था की । इसका आधार सामाजिक संगठन है । ' 'क्या इस व्यवस्था का भारतीय समाज के विकास में कोई योग नहीं है ?' 'नहीं क्यों ? इस व्यवस्था ने शिक्षण संस्थानों की अल्पता में भी कला-कौशल की पैतृक परम्परा को सुरक्षित रखा है, विकसित किया है ।' 'फिर महावीर ने मनुष्य जाति की एकता का उद्घोष क्यों किया ?' 'जन्मना जाति की व्यवस्था ने मनुष्यों में ऊंच-नीच और छुआछूत की भावना पैदा की, समत्व के सिद्धान्त का विखण्डन किया । इस स्थिति में मनुष्य जाति की एकता का उद्घोष नहीं होता तो अहिंसा अर्थहीन हो जाती ।' मैं आचार्य भद्रबाहु से अपनी जिज्ञासा का समाधान पा रहा था। इतने में मेरे कानों में एक ध्वनि टकराई - मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र । मैंने दो क्षण इस पर मनन किया। फिर भद्रबाहु से पूछा- 'क्या कर्मणा जाति का वाद मनुष्य जाति की एकता के सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं है ? ' उन्होंने कहा—'यह तात्त्विक नहीं है । केवल व्यवहार की उपयोगिता है । मनुष्य केवल मनुष्य है । वह विद्याजीवी होता है तब ब्राह्मण हो जाता है । वही व्यक्ति उसी जीवन में रक्षा जीवी होता है तब क्षत्रिय, व्यवसाय-जीवी होकर वैश्य और सेवा जीवी होकर शूद्र हो सकता है । परिवर्तनशील जाति मनुष्य- मनुष्य के बीच में ऊंच-नीच और छुआछूत की दीवार खड़ी नहीं करती । ' 1 मैंने विनम्र वंदना कर कृतज्ञता प्रकट की और मैं आगे बढ़ा । अतीत की दहलीज को पार करते-करते मैं इन्द्रभूति गौतम के पास पहुंचा । ये थे भगवान् महावीर के सबसे ज्येष्ठ शिष्य—-महावीर के सिद्धांतों के मुख्य प्रवक्ता और सूत्रकार । सूक्ष्म लोक में पहुंचकर मैंने उनसे सम्पर्क स्थापित किया और अपनी जिज्ञासा उनके सामने प्रस्तुत की । 'भंते! आप जाति से ब्राह्मण और वेदों के पारगामी विद्वान थे फिर आपने महावीर का शिष्यत्व क्यों स्वीकार किया ?' 'धर्म जाति से अतीत है, इसलिए मैं महावीर का शिष्य बना ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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