Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 32
________________ व्यक्ति और समाज की चिन्ता नहीं करते। उनकी इन्द्रियपरक आवश्यकताएं बढ़ जाती हैं। वे भोग से हटकर अन्य विषयों पर विचार के लिए समय ही नहीं निकाल पाते । विपत्र लोगों को इन्द्रियपरक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अत्यन्त श्रम करना होता है । उन्हें विचार का अवसर ही नहीं मिलता। इस इन्द्रियपरक समाज-रचना में सामाजिक विषमता चलती रहती है। राजतन्न का इतिहास इस बात का साक्षी है कि विचारपरक समाज-रचना का श्रीगणेश उन लोगों ने किया जो भोग में लिप्त नहीं थे। उस विचारपरक समाज-रचना ने ही समाजवादी समाज-व्यवस्था को जन्म दिया। महावीर ने न समाज की व्यवस्था की और न समाज-व्यवस्था का दर्शन दिया। उन्होंने धर्म की व्याख्या की और धर्म का दर्शन दिया। वह धर्म-दर्शन न व्यक्तिवादी है और न समाजवादी । वह आत्मवादी है। व्यक्ति का मानदण्ड संवेदन है और समाज का मानदण्ड विनिमय। धर्म का मानदण्ड इन दोनों से भिन्न है । उसका मानदण्ड संवेदनातीत चेतना और अकर्म है। जैन दर्शन समाज-व्यवस्था का सूत्र नहीं देता, काम और अर्थ का दिशा-निर्देश नहीं देता, जीवन की समग्रता का दर्शन नहीं देता, इसलिए वह अपूर्ण है। यह तर्क उपस्थित किया है और यह तथ्य से परे भी नहीं है। जैन दर्शन में मोक्ष की मीमांसा प्रधान है । मोक्षवादी दर्शन का मुख्य कार्य धर्म की मीमांसा करना होता है। इस संदर्भ में धर्म का अर्थ भी बदल जाता है। काम और अर्थ के सन्दर्भ में धर्म का अर्थ समाज-व्यवस्था के संचालन का विधि-विधान होता है। मोक्ष के सन्दर्भ में उसका अर्थ होता है-चेतना का शोधन । महावीर मे जितने निर्देश दिए वे सब चेतना की शुद्धि के लिए दिए। उन निर्देशों से अर्थ और काम प्रभावित होते हैं, किंतु इनके लिए महावीर ने कुछ किया, ऐसा नहीं कहा जा सकता । क्या मोक्षवादी दर्शन ऐसा कर सकता है? हिंसा और परिग्रह को सर्वथा समाज-व्यवस्था में से पृथक् नहीं किया जा सकता। मोक्ष-धर्म का मौलिक आधार है-अहिंसा और अपरिग्रह । अतः समाजव्यवस्था और मोक्ष-धर्म को एक आधार नहीं दिया जा सकता। मोक्ष-धर्म समाजव्यवस्था को हिंसा और परिग्रह के अल्पीकरण का दिशा-निर्देश देता है। यह समाजवादी समाज-व्यवस्था के हितपक्ष में है, इसलिए इस बिन्दु पर इन दोनों का मिलन हो सकता है। किंतु दोनों का मौलिक आधार एक नहीं है। - व्यक्तिवादी समाज-व्यवस्था स्वार्थ-शासित थी, इसलिए उसमें व्यक्तिगत संग्रह पर कोई अंकुश नहीं था। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ क्रूरता के लिए भी पूरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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