Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 36
________________ व्यक्ति और समाज के आध्यात्मिक स्वरूप से ही फलित होता है । इसका उद्गम धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप ही है । इसलिए यह धर्म से भिन्न नहीं हो सकता । हर्बर्ट स्पेन्सर और थॉमस हक्सले तथा आधुनिक प्रकृतिवादी और मानवतावादी चिंतकों ने धर्म और नैतिकता को पृथक् स्थापित किया है । यह संगत नहीं है । जो आचारण धर्म की दृष्टि से सही है, वह नैतिकता की दृष्टि से गलत नहीं हो सकता । धर्म अपने में और नैतिकता दूसरों के प्रति — इन दोनों में यही अंतर है। किंतु इनमें इतनी दूरी नहीं है, जिससे एक ही आचरण तो धर्म का समर्थन और नैतिकता का विरोध प्राप्त हो । समाजशास्त्रियों ने धर्म और नैतिकता के भेद का निष्कर्ष स्मृति-धर्म के आधार पर निकाला। उस धर्म को सामने रखकर धर्म और नैतिकता में दूरी प्रदर्शित की जा सकती है । धर्म के द्वारा समर्थित आचरण को नैतिकता का विरोध प्राप्त हो सकता है। वह धर्म रूढ़िवाद का समर्थक होकर समाज की गतिशीलता का अवरोध बन सकता है । धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप आत्म- केन्द्रित और उसका नैतिक स्वरूप समाज-व्यापी है। इस प्रकार धर्म दो आयामों में फैला हुआ है। इस धर्म में दोनों रूप शाश्वत सत्य पर आधारित होने के कारण अपरिवर्तनीय हैं। स्मृति-धर्म (समाज की आचार-संहिता) देशकाल की उपयोगिता पर आधारित है । इसलिए यह परिवर्तनशील है । इस परिवर्तनशील धर्म की अपरिवर्तनशील धर्म के रूप में स्थापना और स्वीकृति होने के कारण ही धर्म के नाम पर समाज में वे बुराइयां उत्पन्न हुईं जिनकी चर्चा समाजशास्त्रियों ने की है । २३ स्मृति-धर्म ने अर्थ के अर्जन और भोग का दिशा-निर्देश दिया है, काम सेवन की दिशाएं भी प्रदर्शित की हैं । यह दिशा-निर्देश करना स्मृति-धर्म का ही काम है । शाश्वत धर्म का यह काम नहीं है । उसके द्वारा यदि काम और अर्थ की परिवर्तनशील, व्यवस्था का दिशा-निर्देश हो तो वह शाश्वत का रूप लेकर समाज की भावी व्यवस्थाओं में गतिरोध पैदा कर देता है, जैसा कि आज हो रहा है। स्मृति-धर्म द्वारा प्रतिपादित काम और अर्थ की व्यवस्था में शाश्वत धर्म का सहयोग हो सकता है। महावीर ने यह सहयोग किया था । उन्होंने गृहस्थों की धर्म-संहिता (या नैतिक संहिता) में जो नियम निश्चित किए, उनसे समाज व्यवस्था को भी बहुत सहारा मिला। उदाहरण स्वरूप इन नियमों का निर्देश किया जा सकता है १. अपने कर्मकारों की आजीविका का विच्छेद न करना । २. पशुओं पर अधिक भार न लादना । ३. झूठी साक्षी न देना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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