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भगवान् महावीर : जीवन और सिद्धान्त
अवास्तविक है तो सत्य नहीं कहा जा सकता-इसका स्वीकार भी वास्तविक नहीं है। वास्तविकता इन दोनों के समन्वय से प्राप्त होती है। विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का एक साथ होना समन्वय है । वस्तु-जगत् में पूर्ण सामंजस्य और सह-अस्तित्व है। विरोध की कल्पना हमारी बुद्धि ने की है । उत्पाद और विनाश, जन्म और मौत, शाश्वत और अशाश्वत-ये सब साथ-साथ चलते हैं।'
महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम ने एक बार पूछा'भंते ! सत्य क्या है?' 'वह बताया नहीं जा सकता।' 'तो हम उसे कैसे जानें?' 'तुम स्वयं उसे खोजो।' 'उसकी खोज कैसे करें?'
'कर्म को छोड़ दो-मन को विकल्पों से मत भरो, मौन रहो, शरीर को स्थिर रखो।'
‘भंते ! फिर जीवन कैसे चलेगा?'
‘संयत कर्म करो—बोलना आवश्यक ही हो तो संयम से बोलो। चलना आवश्यक ही हो तो संयम से चलो। खाना आवश्यक ही हो तब संयम से खाओ। सब कुछ संयम से करो।'
'भंते ! सत्य की खोज का मार्ग बताया जा सकता है, तब सत्य क्यों नहीं बताया जा सकता?'
'ये सत्यांश हैं। सत्यांश बताया जा सकता है । मैं सत्य का सापेक्ष प्रतिपादन करता हूं । पूर्ण सत्य नहीं बताया जा सकता। इसलिए मैं कहता हूं कि सत्य नहीं कहा जा सकता । सत्यांश बताया जा सकता है, इसलिए मैं कहता हूं कि सत्य कहा जा सकता है । सत्य अवक्तव्य और सत्य वक्तव्य है----इन दोनों का सापेक्ष बोध ही सम्यग् ज्ञान है।' वक्तव्य सत्य
‘भंते ! वक्तव्य सत्य क्या है ?'
'अभेद की दृष्टि से अस्तित्व (होना मात्र) सत्य है और भेद की दृष्टि से द्रव्य और पर्याय सत्य है । द्रव्य शाश्वत है । पर्याय अशाश्वत है । शाश्वत और अशाश्वत का समन्वय ही सत्य है। जब हम विश्व को ज्ञेय की दृष्टि से देखते हैं तब चेतन
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