Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 9
________________ आक्रुष्टेन मतिमता, तत्त्वार्थ-विचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः; स्यादनृतं किं नु कोपेन ॥ तुम अपनी निन्दा सुन कर, वास्तविकता का गम्भीर विचार करो, कि यदि वह सत्य है, तो उस पर क्रोध क्यों? और, यदि वह असत्य है, तो वृथा क्रोध करने से भी क्या लाभ ! शरीरं धर्म-संयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीरात् सवते धर्मः ; पर्वतात् सलिलं यथा ॥ धर्म-शील शरीर की हर प्रकार से रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि उससे धर्म की उत्पत्ति होती, उससे धर्म का निःसरण होता है, जैसे कि पर्वत की चट्टान से जल-धारा निकलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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