Book Title: Saraswati 1937 01 to 06
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 10
________________ सरस्वती [भाग ३८ भेद कर पङ्क निकलता कमल जो मानव का वह निष्कलङ्क, हो कोई सर" था सुना, रहे, सम्राट् ! अमर.. मानव के वर ! वैभव विशाल, साम्राज्य सप्त-सागर-तरङ्ग-दल दत्त-माल, है सूर्य क्षत्र मस्तक पर सदा विराजित ले कर-आतपत्र, विच्छुरित छटा-- जल, स्थल, नभ में विजयिनी वाहिनी विपुल घटा, क्षण क्षण भर पर बदलती इन्द्रधनु इस दिशि से उस दिशि सत्वर, वह महासन लक्ष्मी का शत-मणि-लाल-जटित ज्यों रक्त पद्म, बैठे उस पर नरेन्द्र-वन्दित, ज्यों देवेश्वर । उर की पुकार जो नव संस्कृति की सुनी विशद, मार्जित, उदार, था मिला दिया उससे पहले ही अपना उर, इसलिए खिंचे फिर नहीं कभी, पाया निज पुर जन-जन के जीवन में सहास, है नहीं जहाँ वैशिष्ट्य-धर्म का भ्रू-विलास-- भेदों का क्रम, मानव हो जहाँ पड़ा-- __ चढ़ जहाँ बड़ा सम्भ्रम । सिंहासन तज उतरे भू पर, सम्राट् ! दिखाया सत्य कौन-सा वह सुन्दर । जो प्रिया, प्रिया वह ___ रही सदा ही अनामिका, तुम नहीं मिले,तुमसे हैं मिले आज नव यारप-अमेरिका। सौरभ प्रमुक्त! प्रेयसी के हृदय से हो तुम प्रतिदेशयुक्त, प्रतिजन. प्रतिमन, आलिङ्गित तुमसे हुई सभ्यता यह नूतन ! पर रह न सके, हे मुक्त, बन्ध का सुखद भार भी सह न सके । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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